गिले अपनी मजबूरियों से
जिंदगी भी क्या अजब सवाल पूछती है
क्यों दुःख और निराशा एक साथ देती है
कुछ जी नहीं पा रहे हैं इनके बोझ तले
कुछ ढूंढ रहे अपनी रिहाई के नए रास्ते
पर चल सब रहे कुछ मन कुछ बेमन से
कुछ अपनी पहचान से कुछ गुमनाम से
कितनो को हैं गिले अपनी मजबूरियों से
हँसते -मुस्कुराते पर अंतरंग में अधूरे से
जिंदगी यहाँ सबको सब कुछ नहीं देती
कुछ देती तो कीमत वसूल जरूर लेती
चल रे मन कुछ बोझिल क़दमों के साथ
दिन तेरे खूब फिरेंगे चंद लम्हों के बाद
– प्रज्ञा यादव