विचार

बदल गए हैं होली के रंग, इस बार मनाएं परंपराओं के संग, होली के विभिन्न रंगों की गहराई बता रही हैं साहित्यकार प्रमोद पारवाला

Share now

मन झूम रहा बिन बादल के,
होली के रंग कुछ यूं बरसे।
नैनों से मदिरा यूं छलकी ,
ज्यों मद के प्याले हों छलके ।
होली का नाम लेते ही रंग में सराबोर, भंग की मस्ती में झूमते, नाचते लोग स्मृति पटल पर उभर आते हैं और गुझिया का स्वाद भी अनायास ही मुंह में घ़ुल कर मिठास पैदा करने लगता है। बाहर शहरों में नौकरी करने वाले या विदेशों में रहने वाले लोग भी त्योहारों को मनानेअपने घर आते हैं। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। यह त्योहार भक्त प्रह्लाद की भगवान के प्रति दृढ़ आस्था से जुड़ा है। प्रह्लाद के पिता स्वयं को ही ईश्वर मानते थे, प्रह्लाद की भक्ति के कारण उन्होंने कई बार प्रह्लाद को मरवाने का प्रयत्न किया किंतु प्रह्लाद हर बार ईश कृपा से बच गए। अंत में हिरण्यकश्यप के कहने से ही उनकी बहन अग्नि देव के दिये वस्त्र को ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई।

प्रह्लाद तो भगवान का स्मरण करते रहे और भगवत् कृपा से अग्नि देव का दिया वस्त्र उड़ जाने के कारण होलिका अग्नि में भस्म हो गई. प्रह्लाद सकुशल बाहर आ गए. इसीलिए बुराई पर अच्छाई की जीत का यह त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वैसे तो होली का आगमन वसंत पंचमी से ही हो जाता है। हर ओर हर्ष उल्लास का वातावरण होता है। प्रकृति भी आनंद में डूबी नजर आती है। कोयल भी अपने मीठे स्वर में गीत गाने लगती है। लोग उमंग और उत्साह से भरकर होली की तैयारियों में जुट जाते हैं।


जीवन में रंग उमंग भरे,
देखो फिर से होली आई।
रंगों से रंग सब खेल रहे,
मतवालों की टोली आई।
फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की फुलेरा द्वितीया पर चौराहों पर होली रखनी शुरू हो जाती है। घरों में भी बेटियां आंगन के बीचों बीच गोबर से लीप कर, उस पर सूखे आटे से चौक लगाकर चंदा, सूरज और दुगियो की आकृति बनाती हैं। यह सिलसिला होली की पूर्णिमा तक चलता है। पूर्णिमा की रात को रंग-बिरंगे रंगों से रंगोली बनाकर उनके ऊपर बलगुरियों के (गोबर के छेद वाले छोटे-छोटे उपले ) हार एक के ऊपर एक शंकु के आकार के रखे जाते हैं। जिनसे घर पर छोटी होली जलाई जाती है।


बच्चे टोलियां बनाकर घर-घर जाकर “होली के कंडे दो, होली की लकड़ी दो’ के नारे लगाते हुए हर घर से कंडे लकड़ी लाकर चौराहे की होली पर इकट्ठे करते हैं किंतु अब घर-घर से चंदा लेकर होली रखी जाती है। रंगभरनी एकादशी से रंग छूटना शुरू हो जाता है। बड़े तो कामकाज के कारण अधिक नहीं खेल पाते हैं मगर बच्चों का हुड़दंग खूब जोरों पर रहता है. राह चलता कोई भी उनके रंगों से बचकर नहीं जा पाता. 15 दिन पहले से ही घरों की छतों पर कचरी, पापड़, चिप्स सूखना शुरू हो जाते हैं. महिलाओं का तो अधिकतर समय खाना बनाने के बाद रसोई में पकवान बनाने में ही बीतता है। हर घर से उठती पकवानों की मीठी सुगंध होली का संदेशा देने लगती है. होली की बात गुझिया के जिक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती. होली का मुख्य पकवान गुझिया है। होली की पूर्णिमा की सुबह हनुमान जी का मीठे रोट (मीठी पूरी) से  भोग लगाया जाता है। पहले भोजन और पकवान की थालियां मन्दिर भेजी जाती हैं ,फिर शाम को पिचकिया गुड़ और आटे से बनी गुझिया रोली चावल से बाहर की होली की पूजा करके उसपर जल चढाया जाता है। पूर्णिमा को लोग अपनी अपनी ससुराल रँग खेलने जाते हैं।होली की पूर्णिमा को दोपहर में राम बारात निकलती है। सभी पुरुष सफेद कुर्ता पायजामा और टोपी पहनकर राम बारात में शामिल होते हैं। जगह-जगह रंगों से भरे नाद रखे होते हैं। ढोल धमाकों की आवाजों के साथ पिचकारियों में रंग भर-भर के लोग एक दूसरे पर डालकर खूब मोर्चा लेते हैं। पूर्णिमा की रात में होली जलाई जाती है। रात भर होली के गाने लाउडस्पीकर पर बजते रहते हैं। पूरी रात हुरियारे भंग और मदिरा की मस्ती में झूमते, नाचते रहते हैं.

घर के पुरुष सुबह ही गन्नों में होला वाली (चने और गेहूं की बालियां) बांधकर होलिका में भूनने के लिए बाहर चौराहे की होली पर जाते हैं। घूमते हुए होलिका की परिक्रमा भी करते जाते हैं। बाद में सब गले मिलते हैं, छोटे बड़ों के पैर छूते हैं। सब एक दूसरे को रंग और गुलाल लगाते हैं। बाहर की होली से ही आग लाकर घर की छोटी होली जलाई जाती है। घर की होली महिलाएं ही जलाती हैं। महिलाएं पीले वस्त्र पहनकर ढोलक बजाती हुई, होली गाती हैं और होली की अग्नि में होला वाली भूनकर रोली चावल से उसकी पूजा करती हैं, एक दूसरे के गुलाल और टीका लगाती हैं । अग्नि में होला वाली चढ़ाने का एक कारण यह भी है कि नया पैदा होने वाला अनाज पहले भगवान को ही चढ़ाया जाता है. जैसे दीपावली पर नए धान की खीलें पहले भगवान को चढ़ाते हैं और होली पर नए गेहूं और चने की बालियां अग्नि देवता को समर्पित करते हैं। यह हमारी परंपरा है कि हर चीज का भोग पहले देवताओं को लगाते हैं फिर स्वयं ग्रहण करते हैं। घरों में पकवानों की थालियां पहले ही सजा कर रख दी जाती हैं। जिससे आने वाले लोग उनका आनंद ले सकें। होली की पूजा के बाद लोग बाहर से रंग खेल कर आते हैं फिर अपने घरों पर भी जमकर रंग खेला जाता है। लोग रंग में इतना रंगे होते हैं कि एक दूसरे को पहचानना भी मुश्किल होता। ऐसे में एक पति और पत्नी के बीच की तकरार को देखिए-
चेहरे पर रंग मला ,
कौन पहचाने भला ?
फूट गुझिया सी फैली,
पिया ने जो रंग मला।
अरे ओ! कलमुहे रंग,
काहे डाला मोरे अंग?
पांव यूं पटक गोरी,
साजन से उलझ गई।
मरोड़ी कलाई तो,
बिजली सी चमक गई ।
स्यो सी उलझी थी जो,
बूंदी सी सुलझ गई।
प्रतिपदा को घर में होली खेलकर दोपहर 12:00 बजे के बाद नहाते धोते हैं। शाम को नए कपड़े पहन कर होली मिलाप मेले में होली मिलन के लिए जाते हैं। उस दिन केवल गमी वाले घरों में जाया जाता है. और किसी घर में नहीं प्रतिपदा के दूसरे दिन घर-घर जाकर होली मिलन होता है। कई लोगों के यहां होली दूज का त्योहार भी भाई दूज की तरह मनाया जाता है. इसमें बहन भाइयों को रोचना लगाती हैं। होली के बाद घरों में “गुजरियो’ का सिलसिला शुरू होता है। इसमें महिलाएं होली गाती हैं। एक दूसरे के गुलाल लगाती हैं। बाद में होली के पकवानों का आनंद लेती हैं. होली की आग ठंडी होने पर घरों में “वासेरे” की पूजा शुरू होती है। इस पूजा के लिए रात में ही हलवा पूरी बना कर रख दी जाती है। प्रातः काल ही बासी हलवा पूरी से ही शीतला माता की पूजा होती है। माना जाता है इसे शीतला माता प्रसन्न होती हैं। खसरा या चेचक का डर नहीं होता। बाहर से आए लोग भी इनका टीका लगाकर ही वापस लौटते हैं। घर में छोटी होली जलाते समय भी बच्चों को सच्चे मोती इसलिए निगलवाये जाते हैं कि उनको खसरा या चेचक ना निकले। लोग बाल्टियों में होली पर पानी रख आते हैं और फिर उसे घर लाकर उस गर्म पानी से नहाते भी हैं। माना जाता है कि इससे रोगों से बचाव रहता है किंतु अब होली के रंग कुछ फीके पड़ गए हैं।

पहले संयुक्त परिवार थे, लोग बाहर गए हुए अपने लोगों के आने की प्रतीक्षा करते थे, उनके आने पर सब मिलकर हर्षोल्लास के साथ त्योहार मनाते थे। सब तरफ जैसे खुशियां ही खुशियां छाई रहती थीं मगर हम जैसे लकीर के फकीर बने हुए हैं, परंपरा समझकर निभाते आ रहे हैं। पुरानी मान्यताएं और परंपराएं बदल रही हैं। कुछ तो संयुक्त परिवार टूटने के कारण और दूसरे बाहर और विदेशों में नौकरी करने के कारण लोग अधिकतर अपनों के पास नहीं आ पाते। अब महिलाएं भी सर्विस करने के कारण समयाभाव के चलते घरों में पकवान नहीं बना पातीं, अधिकतर बाजार से ही आ जाता है। 2 दिन बाद उन्हें नौकरी पर लौटना होता है। घर-घर होली मिलन की परंपरा भी सिमट कर रह गई है। गुजरिया तो लगभग बंद हो चुकी है। पहले टेसू के रंगों और गुलाल से होली खेली जाती थी किंतु अब उन रंगों को तीखा करने के लिए न जाने कितने खतरनाक कैमिकल मिलाए जाते हैं जो कभी- कभी शरीर पर छाले और जख्म भी कर देते हैं. मेरा तो सभी से यही अनुरोध है और यही संदेश है-
मन की गंगा में प्रेम रंग घोलो रे,
गलबहियां डाल के मीत रंग खेलो रे।
धूल ब्रजभूमि की अब मलो गाल पर,
अवध अबीर में अंग अंग मेलो रे।
एक निजी समाचार पत्र की पर्यावरण बचाओ मुहिम सबसे बड़ी प्रसन्नता की बात है। लोगों ने इससे जुड़कर हर मोहल्ले में एक ही होली जलाने का निर्णय लिया है। पर्यावरण बचाने की दिशा में एक सराहनीय कदम है, इससे पेड़ भी बचेंगे और पर्यावरण भी शुद्ध होगा-
वातावरण शुद्ध बनाओ,
एक नहीं 10 पेड़ लगाओ।


इस समय कोरोना काल चल रहा है जिसने हम सबको एक-दूसरे से वैसे ही दूर कर रखा है। कोरोना पिछली होली से ही शुरू हो गया है। हममें से बहुत से लोगों को यह निगल चुका है मगर बहुत से लोग अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से इसके चंगुल से बाहर भी आए हैं। अब भी हमें निराश नहीं होना चाहिए, गले मिलने से ही होली मिलना नहीं होता, हमारी अभिवादन की पुरानी परंपरा अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ उभर कर हमारा पूरा साथ दे रही है। क्यों न हम उसी का पालन करें। हाथ मिलाने के स्थान पर, गले मिलने के स्थान पर, हाथ जोड़कर, थोड़ा झुक कर, पूरे आदर के साथ, होली मिलन के इस त्योहार को पूरे आनंद के साथ मनाएं। इस होली पर हम पूरी सावधानी रखें, केमिकल मिले रंगों का परित्याग करके टेसू एवं हितकारी रंगों का प्रयोग करें। ऐसे में होली और उल्लासमयी हो जाएगी। यह होली फिर आएगी, फिर रंगों और उमंगों का संदेशा लाएगी। हम फिर नए उत्साह और उमंग के साथ उसे मनाएंगे।
रंग उड़े धूल से, महक उठे फूल से,
घुलता वासन्ती रंग, टेसू के फूल से।
हृदय से निकाल लो कांटे बबूल से,
घुलता वासन्ती रंग, टेसू के फूल से।
होली की शुभकामनाओं के साथ-
लेखिका- प्रमोद पारवाला
(कवयित्री एवं कहानीकार)

(नोट – लेख में उल्लिखित समस्त काव्य रचनाएं लेखिका द्वारा स्वरचित हैं)

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *