उत्तराखंड

भीम शिला से पांडवों का रहा है खास ताल्लुक

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दीपक शर्मा, लोहाघाट
चम्पावत जिले में स्थित मां बाराही धाम देवीधुरा की भीम शिला का आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व है। इसे लेकर कई मान्यताएं भी हैं। मां बाराही धाम के पीठाचार्य कीर्ति बल्लभ शास्त्री का मानना है कि पांडवों के यहां आने से पूर्व मां बाराही की स्थापना इस स्थान पर हो चुकी होगी अन्यथा वे यहां अन्य देवी-देवता की स्थापना कर सकते थे।
प्राचीनकाल से मान्यता रही है कि किसी क्षेत्र में कोई एक देवी-देवता निवास स्थापित है तो वहां उसी की प्रधानता रहती है। भीम शिला एक विशालकाय शिला है। इस शिला पर प्रमाण चिन्हित है कि अज्ञातवास के समय पांडवों ने यहां वास किया और वह इस शिला के ऊपर चौपड़ खेला करते थे। शिला पर चौपड़ के लिए चौकियां बनी हुई हैं।
किवदंतियों के अनुसार जब पांडव इस शिला के ऊपर चौपड़ खेल रहे थे, तब उनके साथ शक्ति स्वरूपी मां बाराही एक ग्वालन के रूप में बैठी हुई थीं। इसी बीच किसी बात पर भीम को क्रोध आया और ग्वालन इस शिला के भीतर समा गईं।
आज भी इस शिला के एक भाग को थपथपाने पर ऐसा लगता है कि यह खोखली है। भीम ने ग्वालन की तलाश में इस शिला के दो हिस्से कर दिए लेकिन वह भूल गए कि उनके सभी भाई शिला के ऊपर बैठे चौपड़ खेल रहे हैं।
उसी समय शिला दो भागों में विभक्त होकर गिरने लगी थी। भीम ने पास में रखी एक छोटी शिला को विभक्त करने वाले जोड़ पर रख दिया जिसके शिला गिरने से बच गई। स्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी शिला पर भीम के हाथ, पंजों और तलवार से विभक्त किए गए निशान दिखते हैं।
अब नहीं दी जा रही अठवार
पाटी/देवीधुरा। बगवाल मेले के दौरान 2013 से पशुबलि के रूप में अठवार दी जाती थी। मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालुओं की ओर से मंदिर में अष्ट बलि और अठवार के तहत बकरे, कटरे, मुर्गों आदि की बलि देने की परंपरा थी लेकिन पीपुल्स एनीमल नामक गैर सरकारी संस्था की गीता मौलेखी की ओर से उच्च न्यायालय में दायर रिट के बाद आए फैसले के बाद मंदिर में पशुबलि के रूप में अठवार दिए जाने की परंपरा पर रोक लग गई है। इस आदेश का यहां पूरी तरह पालन हो रहा है।

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