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यूपी में दलित राजनीति की नई पटकथा लिख रहे अता उर रहमान, थामी दलितों को साधने की कमान, पढ़ें ‘मिशन 2027’ के लिए किस रणनीति पर काम कर रहे हैं पूर्व मंत्री और सपा के प्रदेश महासचिव

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नीरज सिसौदिया, बरेली
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित वोटों की अहमियत हमेशा से निर्णायक रही है। 1990 के दशक में जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने मायावती के नेतृत्व में दलितों को एकजुट कर सत्ता का स्वाद चखा था, तब से दलित मतदाता हर चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर बने रहे। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। बसपा की मुखिया मायावती धीरे-धीरे हाशिए पर जा रही हैं, भाजपा ने दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए अलग रणनीति बना रखी है और समाजवादी पार्टी (सपा) लगातार इस कोशिश में है कि दलित मतदाताओं को अपने पाले में लाया जाए।


इसी रणनीति के तहत सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का पूरा फोकस 2027 के विधानसभा चुनाव पर है। वह भली-भांति जानते हैं कि अगर यादव, मुस्लिम और दलित समीकरण एकजुट हो जाए तो सत्ता का रास्ता आसान हो सकता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2027 का विधानसभा चुनाव दलित वोटों के इर्द-गिर्द घूमेगा। मायावती के हाशिये पर जाने से जो खालीपन पैदा हुआ है, उसे भरने के लिए भाजपा और सपा दोनों आमने-सामने हैं। बरेली में समाजवादी पार्टी के प्रदेश महासचिव और पूर्व मंत्री अता उर रहमान की सक्रियता और दलित सभाएं इस बात का संकेत हैं कि समाजवादी पार्टी ने अभी से चुनावी शतरंज की गोटियां बिछानी शुरू कर दी हैं। आने वाले डेढ़ साल में यह साफ हो जाएगा कि दलित समाज किस तरफ झुकता है और वही तय करेगा कि 2027 में यूपी की सत्ता किसके हाथ में जाएगी।

अता उर रहमान

विश्लेषकों का कहना है कि दलित वोटों की राजनीति अब ‘सिर्फ मायावती’ तक सीमित नहीं रह गई है। भाजपा और सपा दोनों ही इस वर्ग को अपने साथ जोड़ने में जुटे हैं। जहां भाजपा विकास और योजनाओं का हवाला दे रही है, वहीं सपा सामाजिक न्याय और सम्मान की राजनीति पर जोर दे रही है। अगर अखिलेश यादव दलितों को अपने साथ जोड़ने में सफल होते हैं, तो यादव-मुस्लिम-दलित समीकरण भाजपा के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है। दलित समाज के भीतर भी आंतरिक विभाजन है और हर उपजाति की अपनी अलग प्राथमिकताएं हैं।
उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 403 सीटें हैं। इनमें लगभग 85 सीटें दलित बहुल मानी जाती हैं। 2022 के चुनाव में इन सीटों पर भाजपा ने बढ़त बनाई थी, जबकि बसपा का खाता तक नहीं खुल पाया। सपा अब चाहती है कि इन 85 सीटों पर वह खुद को प्रमुख दावेदार के रूप में पेश करे।


बरेली जैसे जिलों में अता उर रहमान की सक्रियता को इस बड़ी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। उनका फोकस सिर्फ स्थानीय राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह प्रदेश स्तर पर दलित समाज में सपा की पैठ मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने बसपा की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाया था। कई सीटों पर दलित वोटरों ने सपा के उम्मीदवारों का समर्थन किया, जिसका सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ा। इसी पैटर्न को अब 2027 विधानसभा चुनाव में दोहराने की तैयारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब सपा और ज्यादा आक्रामक तरीके से दलित वोटों को साधने में जुट गई है।
अता उर रहमान ने साफ कर दिया है कि उनकी रणनीति सिर्फ दलितों को सपा से जोड़ने की नहीं है, बल्कि उन्हें भाजपा से दूर रखने की भी है। वह जानते हैं कि भाजपा की सबसे बड़ी ताकत दलितों और पिछड़ों का गठजोड़ रहा है। अगर इस कड़ी को तोड़ दिया जाए, तो भाजपा की जमीनी पकड़ कमजोर पड़ सकती है। बरेली जिले में उनकी सक्रियता को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। दलित बहुल इलाकों में लगातार सभाएं कर वे यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि सपा ही उनकी सच्ची आवाज़ है। वहीं, जिला संगठन में वाल्मीकि समाज के नेताओं को अहम जिम्मेदारी देकर दलित समाज को यह भरोसा दिलाने का प्रयास किया जा रहा है कि उन्हें सपा में उचित सम्मान और नेतृत्व मिलेगा।बुधवार को अता उर रहमान ने बरेली जिले के ग्राम उनाई खालसा, लखनपुर और बकोली में दलित समाज की सभाएं कीं। इन सभाओं में भारी संख्या में दलित समाज के लोग जुटे, जिससे सपा नेताओं का हौसला और बुलंद हुआ। इन आयोजनों में समाजवादी शिक्षक सभा के प्रदेश महासचिव सुभाष वाल्मीकि और हाल ही में जिला उपाध्यक्ष बनाए गए गुरु प्रसाद काले वाल्मीकि की भूमिका खास रही। गुरु प्रसाद काले को संगठन में पद देकर सपा ने यह साफ संकेत दिया है कि पार्टी अब दलित नेतृत्व को भी आगे बढ़ाने के मूड में है।

गुरु प्रसाद काले

सभा में वक्ताओं ने भाजपा पर दलितों को सिर्फ वोट बैंक समझने का आरोप लगाया और कहा कि सपा ही वह विकल्प है जो दलितों के सम्मान और हक की सच्ची लड़ाई लड़ रही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती का दौर अब पीछे छूटता दिख रहा है। 2022 विधानसभा चुनाव और 2024 लोकसभा चुनाव दोनों में बसपा का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। मायावती दलितों को एकजुट रखने में नाकाम रही हैं। बड़ी संख्या में दलित वोटर भाजपा और सपा दोनों खेमों में बंट गए हैं।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि दलित वोटों का यह बिखराव ही सपा के लिए बड़ा अवसर है। अगर सपा इस वर्ग को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाती है तो 2027 में भाजपा को चुनौती देना आसान हो जाएगा। यही वजह है कि अखिलेश यादव ने अता उर रहमान जैसे नेताओं को मैदान में उतारा है, जो जमीनी स्तर पर जाकर दलित समाज के बीच काम कर रहे हैं।

चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ की मंशा पर भी पानी फेरने की है तैयारी
दलित राजनीति में मायावती के बाद सबसे ज्यादा चर्चा जिस चेहरे की होती है, वह चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ हैं। भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी के जरिए उन्होंने दलित युवाओं में अच्छी पकड़ बनाई थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके आंदोलनों ने भाजपा और बसपा दोनों को परेशान भी किया। लेकिन 2022 और 2024 के चुनावी नतीजों ने यह साफ कर दिया कि चंद्रशेखर आजाद अभी व्यापक स्तर पर दलित वोटों को एकजुट करने में नाकाम रहे हैं। उनकी पार्टी का संगठन सीमित है और अधिकांश सीटों पर उनके उम्मीदवारों को महज कुछ हजार वोट ही मिले। यानी, चंद्रशेखर का करिश्मा अभी तक बड़े चुनावी नतीजों में तब्दील नहीं हो पाया है। इस कमजोरी का सीधा फायदा समाजवादी पार्टी और अता उर रहमान जैसे नेताओं को मिल रहा है। अता उर रहमान की रणनीति यही है कि जिन दलित वोटरों को मायावती और चंद्रशेखर दोनों अपने साथ बांधकर नहीं रख पा रहे, उन्हें सपा के खेमे में लाया जाए। यही वजह है कि वे लगातार दलित बस्तियों में सभाएं कर रहे हैं और दलित नेताओं को संगठन में अहम पदों पर लाकर यह भरोसा दिला रहे हैं कि सपा ही उनकी सच्ची राजनीतिक ताकत बन सकती है।

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