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तौकीर रजा के एक कदम ने बदल डाली सियासी तस्वीर, हिन्दू-मुस्लिम की सियासत में फायदा किसका?  विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा डैमेज कंट्रोल, जानिये क्यों?

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नीरज सिसौदिया, बरेली
‘आई लव मोहम्मद’ अभियान को लेकर शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में जो कुछ भी हुआ वह बेहद दिल दहलाने वाला था। पुलिस ने इसे एक सोची-समझी साजिश का हिस्सा करार दिया है। वहीं, आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर रजा खां के इस एक कदम ने बरेली की फिजाओं में धर्म का जहर घोलने के साथ ही प्रदेश की सियासत में भी हलचल मचा दी है। खासतौर पर बरेली जिले की सियासी तस्वीर पलटकर रख दी है। बरेली के इस हिंसक प्रदर्शन ने धर्म की सियासत को एक बार फिर गरमा दिया है। धर्म की यह आग बाराबंकी, मऊ और मुजफ्फरनगर जैसे जिलों तक फैल चुकी है, जबकि वाराणसी और कानपुर पहले से ही इस मामले से प्रभावित थे। यही वजह है कि वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव के दृष्टिगत इस विवाद का राजनीतिक महत्व और अधिक बढ़ गया है। यह विवाद जितना बढ़ेगा उतना ही अधिक हिन्दू और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण भी बढ़ेगा। इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा और विपक्ष को एक बार फिर हिन्दुओं का भरोसा जीतने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। हालांकि, विपक्षी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए यह डैमेज कंट्रोल आसान नहीं होगा। समाजवादी पार्टी के महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी इस विवाद में मुस्लिम पक्ष के साथ खड़े नजर आए हैं। उन्होंने खुलकर पुलिसिया लाठीचार्ज की निंदा भी की है।


दरअसल, समाजवादी पार्टी का आधार वोट बैंक मुस्लिम ही है। इसलिए उसे न चाहते हुए भी इस विवाद में मुस्लिमों के पक्ष में उतरना ही होगा। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो इसका सीधा लाभ असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम जैसी पार्टियां उठा सकती हैं। बरेली सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य पहले से ही संवेदनशील है। हिन्दू और मुस्लिम मतदाता समीकरण इस जिले की चुनावी राजनीति को सीधे प्रभावित करता है। ‘आई लव मोहम्मद’ अभियान के तहत आईएमसी प्रमुख तौकीर रजा की पहल ने इस संवेदनशील स्थिति को और जटिल बना दिया। इस विवाद ने विपक्षी दलों के लिए चुनौती पैदा की है क्योंकि उनका सबसे बड़ा वोट बैंक मुस्लिम समुदाय है। तौकीर रजा के इस कदम ने स्थिति राजनीतिक दृष्टि से और अधिक महत्व रखती हुई बना दी।
विश्लेषकों का मानना है कि इस विवाद से मुस्लिम समुदाय में नाराजगी बढ़ सकती है, जबकि हिन्दू मतदाता भाजपा की ओर और संगठित होकर खड़े हो सकते हैं। यह स्थिति विपक्ष के लिए स्पष्ट राजनीतिक नुकसान का संकेत देती है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों को मुस्लिम वोट बैंक को संतुलित रखने में सावधानी बरतनी होगी, अन्यथा यह चुनावी नुकसान में बदल सकता है।
बरेली विवाद का असर न केवल स्थानीय प्रशासन और समाज पर पड़ा, बल्कि प्रदेश के कुछ अन्य जिलों में भी राजनीतिक और सामाजिक तनाव बढ़ गया है। बाराबंकी जिले के फैजुल्लागंज गांव में बैनर फाड़ने के बाद स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आए और माहौल तनावपूर्ण हो गया। मऊ जिले में जुमे की नमाज के बाद ‘आई लव मोहम्मद’ अभियान के तहत जुलूस निकाला गया, जिसमें हल्का संघर्ष देखने को मिला। मुजफ्फरनगर जिले में प्रशासन ने सुरक्षा कड़ी कर दी और आपत्तिजनक स्टिकर और पर्चे लगाने वाले कुछ लोगों को गिरफ्तार किए गए। वहीं, वाराणसी में बिना अनुमति जुलूस निकालने पर आठ लोग गिरफ्तार हुए। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि छोटे विवाद भी पूरे जिले और आसपास के क्षेत्रों में सियासी और चुनावी समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि आईएमसी प्रमुख तौकीर रजा के इस कदम से मुस्लिम समुदाय में सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ सकता है, जिससे विपक्षी दलों के लिए चुनावी रणनीति और कठिन हो जाएगी। इसके विपरीत, भाजपा इस स्थिति का लाभ उठाकर हिन्दू मतदाताओं को एकजुट कर सकती है। यह विवाद स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि धार्मिक और सामुदायिक मुद्दे उत्तर प्रदेश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए बरेली और आसपास के जिलों में यह विवाद विपक्ष के लिए दोहरी चुनौती पेश करता है। उन्हें मुस्लिम वोट बैंक को संतुलित रखना है और हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को रोकना है। हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को रोकने की दिशा में बरेली में समाजवादी पार्टी के शहर विधानसभा सीट से पूर्व प्रत्याशी राजेश अग्रवाल, सपा के चिकित्सा प्रकोष्ठ के जिला अध्यक्ष डॉक्टर अनीस बेग, समाजवादी पार्टी अल्पसंख्यक सभा के प्रदेश उपाध्यक्ष इंजीनियर अनीस अहमद खां, सपा के शहर विधानसभा क्षेत्र अध्यक्ष हसीब खान जैसे नेता पहले से ही कड़ी मशक्कत कर रहे हैं। इन नेताओं ने कांवड़ियों की सेवा, मोहब्बत का शरब, मां काली की झांकियों और रामलीला जैसे कार्यक्रमों में अहम योगदान देने के साथ ही पीडीए(पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) पंचायतें जैसे आयोजन करके हिन्दू समाज के दिलों में समाजवादी पार्टी के लिए अहम जगह बनाने का प्रयास किया था। साथ ही इस नैरेटिव को भी तोड़ने का प्रयास किया था कि समाजवादी पार्टी सिर्फ मुस्लिमों और यादवों की पार्टी नहीं है। लेकिन सपा नेताओं का ‘मोहब्बत का शरबत’ मौलाना तौकीर रजा पी गए। राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान पर भी बरेली में मानो बुलडोजर चल गया हो।
अगर विपक्ष इस स्थिति को संभालने में विफल रहता है, तो यह भाजपा के लिए चुनावी लाभ का अवसर बन सकती है। चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि बरेली जैसे संवेदनशील जिलों में हुए विवाद से मतदाताओं की धारणा प्रभावित होती है और आगामी चुनाव में मतदान के पैटर्न को बदल सकता है।
भाजपा इस विवाद का लाभ उठाकर अपनी चुनावी तैयारियों को और मजबूत कर रही है। पार्टी हिन्दू मतदाताओं को संगठित करने के साथ-साथ राजनीतिक संदेश को प्रभावी ढंग से प्रसारित करने का प्रयास कर रही है। आगामी 2027 विधानसभा चुनाव में यह स्थिति भाजपा के लिए निर्णायक साबित हो सकती है।
विपक्ष के लिए चुनौती यह है कि वह मुस्लिम वोट बैंक को संतुलित रखते हुए हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को रोकने के लिए ठोस रणनीति अपनाए। अगर विपक्ष इस संतुलन को बनाए रखने में सफल नहीं होता है, तो यह बरेली और आसपास के जिलों में भाजपा के लिए चुनावी लाभ में बदल सकता है।
इसकी एक वजह यह भी है कि मौलाना तौकीर रजा का विपक्ष के दलों से गहरा नाता रहा है। प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी तो मौलाना तौकीर रजा को दर्जा राज्य मंत्री के ओहदे से नवाजा गया था। हालांकि बाद में उनसे यह ओहदा वापस ले लिया गया था। वहीं, वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में मौलाना तौकीर रजा कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करते दिखाई दिए थे। हालांकि यह बात अलग है कि वो कांग्रेस प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा पाई थीं।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बरेली अब केवल एक जिले का नाम नहीं रहा, बल्कि यह राज्य की सियासत और आगामी विधानसभा चुनाव का प्रतीक बन गया है।
इस विवाद के बीच कांग्रेस पार्टी डैमेज कंट्रोल मोड में आ गई है। उत्तर प्रदेश के बरेली में विवाद और हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बीच कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने शनिवार को यह स्पष्ट किया कि मस्जिदें नमाज के लिए होती हैं, सड़क पर हिंसा के लिए नहीं। उन्होंने सहारनपुर में पत्रकारों से कहा, “मस्जिदें नमाज के लिए होती हैं, सड़क पर हिंसा के लिए नहीं। हर मुसलमान को मोहम्मद से प्यार है और इसे जाहिर करने के लिए कोई तमाशा खड़ा करने की जरूरत नहीं है।” मसूद ने मुसलमानों से अपील की कि वे मोहम्मद के प्रति अपने प्रेम को दिखाने के लिए सड़कों पर तमाशा खड़ा करने के बजाय उनके सिद्धांतों का पालन करें। इस बयान से कांग्रेस यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि पार्टी साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने और हिंसा से दूरी बनाने में गंभीर है। यह कदम कांग्रेस के लिए न केवल डैमेज कंट्रोल है, बल्कि यह विपक्ष की राजनीतिक छवि को संतुलित रखने का प्रयास भी माना जा रहा है।
बरेली सहित प्रदेश के कुछ जिलों में यह विवाद आगामी विधानसभा चुनाव के नतीजों को प्रभावित कर सकता है। राजनीतिक समीकरण यह दिखाते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम मतदाता ध्रुवीकरण चुनावी परिणामों में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। सपा और कांग्रेस को मुस्लिम वोट बैंक को संतुलित रखते हुए हिन्दू मतदाताओं के समर्थन को बनाए रखना होगा। डैमेज कंट्रोल की कोशिशें इस तथ्य को दर्शाती हैं कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस चुनाव से पहले किसी भी साम्प्रदायिक तनाव को अपने लिए राजनीतिक नुकसान में बदलना नहीं चाहतीं।
विश्लेषकों का यह भी मानना है कि तौकीर रजा का यह कदम विपक्ष के लिए परीक्षा की तरह है। विपक्ष को यह तय करना होगा कि 2027 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को बनाए रखते हुए अपने राजनीतिक संदेश को कितना प्रभावी ढंग से प्रसारित किया जाए। वहीं भाजपा के लिए यह अवसर है कि वह हिन्दू मतदाताओं को संगठित कर समर्थन बढ़ाए और चुनावी मैदान में आगे बढ़े।
यह साबित हो चुका है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में धार्मिक और सामुदायिक समीकरण निर्णायक हैं। 2027 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह स्थिति विपक्ष के लिए चुनौतीपूर्ण है, जबकि भाजपा के लिए लाभकारी। बरेली और इसके आसपास के जिलों में राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर नजर बनाए रखना इस समय बेहद महत्वपूर्ण है। यह केवल एक विवाद नहीं बल्कि 2027 विधानसभा चुनाव की सियासी लड़ाई का पूर्वाभ्यास बन चुका है। कांग्रेस का डैमेज कंट्रोल और सपा का मुस्लिम वोट बैंक संतुलन बनाए रखने का प्रयास यह दर्शाता है कि चुनावी रणनीति और सियासी संदेश इस समय अत्यधिक संवेदनशील और निर्णायक हैं।

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