नीरज सिसौदिया, बरेली
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2027 का विधानसभा चुनाव कई दृष्टियों से ऐतिहासिक होने जा रहा है। इस बार चुनावी मैदान में जो सबसे बड़ा और निर्णायक वर्ग उभरकर सामने आ रहा है, वह है- दलित समाज।
अब तक दलित राजनीति का चेहरा लगभग एकछत्र रूप से मायावती और उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) रही है। लेकिन अब यह समीकरण पहले जैसा नहीं रहा। बीते कुछ वर्षों में दलित समाज के भीतर से कई नई आवाज़ें उठी हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं — चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण (आजाद समाज पार्टी) और जयप्रकाश भास्कर (सर्वजन आम पार्टी)।
इन तीनों नेताओं — मायावती, चंद्रशेखर आजाद और जयप्रकाश भास्कर — की भूमिका 2027 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा तय करने में निर्णायक हो सकती है।
उत्तर प्रदेश में दलित आबादी लगभग 21% से 22% के बीच है। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या जाटव समुदाय की है, जो पारंपरिक रूप से मायावती के साथ जुड़ा रहा है। लंबे समय तक बसपा इस वोट बैंक के सहारे सत्ता में आती-जाती रही। लेकिन पिछले एक दशक में दलित समाज के भीतर वर्गीय और जातीय विभाजन बढ़ा है। गैर-जाटव दलित- जैसे धोबी, पासी, कोरी, वाल्मीकि, खरवार, धोबी, दुसाध आदि अब यह महसूस करने लगे हैं कि बसपा ने लंबे समय तक केवल एक समुदाय को ही प्राथमिकता दी। इसी भावना ने नई दलित राजनीति की ज़मीन तैयार की है।

मायावती: घटते जनाधार के बावजूद बसपा अब भी मुख्य स्तंभ
मायावती का राजनीतिक सफर एक लंबा इतिहास है- कांशीराम के मिशन “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” से लेकर खुद के ‘बहुमत की राजनीति’ तक। लेकिन 2012 के बाद से बसपा लगातार गिरावट की ओर है। 2012 में बसपा को करीब 26% वोट मिले थे, जो 2022 तक घटकर 12.9% रह गए। यह वोट शेयर बताता है कि दलित समाज में बसपा की पकड़ अब उतनी मज़बूत नहीं रही, खासकर युवा और गैर-जाटव तबकों में। फिर भी मायावती की पार्टी का एक ठोस संगठनात्मक ढांचा अब भी मौजूद है। बूथ स्तर तक फैला हुआ नेटवर्क, समर्पित कैडर और जाटव समुदाय की निष्ठा- ये सब मायावती को अभी भी दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बनाए रखते हैं। मायावती का मजबूत पक्ष यह है कि वे अनुभवी, अनुशासित, और संगठित नेतृत्व की प्रतीक हैं। लेकिन उनकी कमजोरी यह है कि उन्होंने जन-संपर्क से दूरी बना ली है। न तो वे सड़कों पर दिखती हैं, न ही युवा पीढ़ी से संवाद करती हैं। 2027 में अगर यही स्थिति बनी रही, तो मायावती के सामने दोहरी चुनौती होगी- एक, भाजपा द्वारा किए जा रहे “दलित सम्मान” अभियानों से; और दूसरी, चंद्रशेखर और जयप्रकाश जैसे उभरते चेहरों से।
चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’: आक्रामक, युवा और प्रतीकात्मक नेतृत्व
चंद्रशेखर आजाद ने पिछले कुछ वर्षों में दलित युवाओं के बीच अपनी मजबूत पहचान बनाई है। वे सड़क पर संघर्ष करने वाले नेता हैं, जो खुद को “भीम आर्मी” के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनका भाषण, पहनावा और रुख — सब कुछ उन्हें एक विरोध की राजनीति का प्रतीक बनाता है। 2022 के चुनाव में आजाद समाज पार्टी ने कुछ सीटों पर चुनाव लड़ा था, और हालांकि कोई बड़ा परिणाम नहीं आया, लेकिन उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और बरेली मंडल में दलित युवाओं के बीच प्रभाव छोड़ा।

उनकी सबसे बड़ी ताकत है- नया दलित स्वाभिमान। वो कह रहे हैं कि दलितों को अब किसी की छाया में नहीं रहना, बल्कि अपनी स्वतंत्र राजनीतिक ताकत बनानी है। हालांकि, रावण की कमजोरी यह है कि उनकी पार्टी का संगठन सीमित है, और वे अब तक किसी बड़े गठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। उनकी राजनीति फिलहाल भावनात्मक और प्रतीकात्मक है, लेकिन अगर वे 2027 तक इसे संगठनात्मक ऊर्जा में बदलने में सफल होते हैं, तो वे दलित वोटों का एक अहम हिस्सा खींच सकते हैं, खासकर युवाओं और गैर-जाटव वर्ग से।
जयप्रकाश भास्कर: धोबी समाज से उठती नई दलित राजनीति
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जयप्रकाश भास्कर का नाम अब तेजी से उभर रहा है। वे सर्वजन आम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने धोबी समाज को राजनीतिक रूप से संगठित करने का बड़ा काम किया है।
धोबी समाज उत्तर प्रदेश के दलित समुदायों में एक बड़ा, पर अब तक राजनीतिक रूप से उपेक्षित वर्ग रहा है। भास्कर ने इस वर्ग को न सिर्फ सामाजिक पहचान दी है, बल्कि उसे राजनीतिक चेतना से भी जोड़ा है। उनकी सबसे बड़ी ताकत है- मौके पर मौजूदगी और ज़मीनी सक्रियता। उन्होंने हाल ही में प्रदेशभर में हुई बैठकों के जरिए यह साबित किया कि धोबी समाज अब सिर्फ एक जाति नहीं, बल्कि एक संगठित राजनीतिक शक्ति बन सकता है। 6 अक्टूबर को उन्होंने लखनऊ में पार्टी पदाधिकारियों की एक बड़ी बैठक कर चुनावी बिगुल फूंक दिया।

जयप्रकाश भास्कर की रणनीति मायावती और चंद्रशेखर से अलग है। वे न तो पूरी तरह टकराव की राजनीति कर रहे हैं, न ही किसी बड़े दल के साये में जा रहे हैं। उनका ध्यान नीचे से ऊपर की राजनीति पर है- यानी स्थानीय निकायों, पंचायतों और जिला स्तर के संगठन को मजबूत बनाना। उनका लक्ष्य स्पष्ट है- दलित समाज को ‘वोट बैंक’ से निकालकर निर्णायक वोटर बनाना। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर जयप्रकाश भास्कर का यह आंदोलन इसी रफ्तार से आगे बढ़ा, तो 2027 में वे धोबी समाज के वोटों के साथ-साथ अन्य उपेक्षित दलित तबकों जैसे- खटीक, वाल्मीकि और दुसाध तक भी अपनी पहुंच बना सकते हैं।
दलित वोटों का संभावित बिखराव और उसका असर
2027 में दलित समाज के वोटों का बिखराव लगभग तय माना जा रहा है। अब तक जो वोट बसपा के खाते में एकमुश्त चला जाता था, वह अब तीन दिशाओं में बंट सकता है। जाटव वोट बैंक – अभी भी मायावती के साथ मजबूती से खड़ा है, लेकिन उसमें भी युवा वर्ग का झुकाव आजाद समाज पार्टी की ओर दिख रहा है। धोबी और अन्य गैर-जाटव दलित- जयप्रकाश भास्कर की सर्वजन आम पार्टी के साथ जुड़ते दिख रहे हैं। पश्चिमी यूपी और शहरी क्षेत्रों का दलित युवा- चंद्रशेखर आजाद को अपनी आवाज मानने लगा है।
यह बिखराव भाजपा और सपा दोनों के लिए नई संभावनाएं भी खोलता है। भाजपा पिछले कुछ वर्षों से दलित समाज में ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे के साथ पैठ बनाने की कोशिश कर रही है। वहीं सपा भी अखिलेश यादव के नेतृत्व में पिछड़ा-दलित गठजोड़ को फिर से सशक्त करने की रणनीति पर काम कर रही है। इस स्थिति में अगर दलित वोट तीन छोटे दलों में बंट गया, तो मुख्य लड़ाई फिर से भाजपा बनाम सपा तक सीमित हो सकती है, और दलित पार्टियां सिर्फ किंगमेकर की भूमिका में रह जाएंगी।
नई दलित राजनीति बनाम पुरानी व्यवस्था
मायावती की राजनीति संस्था और व्यवस्था पर आधारित है, उनके अनुशासन और प्रतीकात्मकता का एक ढांचा है। वहीं चंद्रशेखर और जयप्रकाश भास्कर की राजनीति जनभावना और असंतोष पर आधारित है। इन दोनों नेताओं ने उन वर्गों को आवाज़ दी है, जो बसपा के भीतर खुद को हाशिए पर महसूस करते थे। यह नया दौर दलित राजनीति में ऊर्जावान लेकिन असंगठित शक्ति का संकेत देता है। भास्कर का उदय यह भी दिखाता है कि अब दलित समाज में सामाजिक विविधता के साथ राजनीतिक स्वायत्तता की मांग तेज़ हो रही है। धोबी समाज अब अपने नेतृत्व को खुद चुनना चाहता है, न कि किसी बड़े दल की छाया में रहना। तीनों नेताओं की दिशा अलग है, लेकिन लक्ष्य एक- दलित समाज को राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करना। यदि ये तीनों नेता अपनी-अपनी सीमाओं से ऊपर उठकर एक साझा मोर्चा या समझौता कर पाते हैं, तो यह गठजोड़ उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया सामाजिक समीकरण पैदा कर सकता है। लेकिन यदि ये अलग-अलग राहों पर चलते रहे, तो दलित वोटों का बिखराव निश्चित रूप से होगा और इसका सबसे बड़ा फायदा उन पार्टियों को मिलेगा जो पहले से सत्ताधारी या संगठित हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति की असली ताकत हमेशा से जनसांख्यिकी और सामाजिक संतुलन में रही है। अब जब दलित समाज के भीतर तीन नेतृत्व उभर चुके हैं, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि 2027 का चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि दलित राजनीति के पुनर्गठन का चुनाव होगा।