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नसीम अहमद के सूर्योदय के साथ ही शुरू हो गया था अता उर रहमान की राजनीति का सूर्यास्त, हर मोर्चे पर भारी पड़े नसीम अहमद, कहीं टिकट भी न ले उड़ें?

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नीरज सिसौदिया, बरेली
जब धरती अपनी धुरी पर घूमती है तो उसके एक छोर पर सवेरा होता है और दूसरे छोर पर सूरज ढलने लगता है. सियासत की दुनिया भी कुछ ऐसे ही सिद्धांत पर चलती है. राजनीति में कुछ भी हमेशा के लिए नहीं होता. कब कौन बुलंदी के फलक पर सितारों की तरह चमकेगा और कब कौन सा सितारा टूटकर जमीं पर आ गिरेगा यह कोई नहीं जानता. जब एक सियासतदान राजनीति के उत्कर्ष पर होता है तो दूसरे का पतन शुरू होने लगता है. कुछ ऐसा ही बहेड़ी की सियासत में भी देखने को मिल रहा है. यहां पूर्व विधानसभा प्रत्याशी नसीम अहमद की सियासत में एंट्री के साथ ही अता उर रहमान की मुश्किलें बढ़नी शुरू हो गई थीं. वर्ष 2016 से पहले जब तक नसीम अहमद का राजनीति में पदार्पण नहीं हुआ था तब तक बहेड़ी की राजनीति के दो केंद्र हुआ करते थे, एक भाजपा के छत्रपाल गंगवार और दूसरे समाजवादी पार्टी के अता उर रहमान. अता उर रहमान का सही मायनों में उदय वर्ष 2001 में तत्कालीन विधायक मंजूर अहमद की हत्या के बाद हुआ था. उस वक्त प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी और मंजूर अहमद समाजवादी पार्टी से विधायक बने थे. मंजूर अहमद की हत्या में अता उर रहमान का नाम भी काफी उछला था. मंजूर अहमद की हत्या के बाद जब बहेड़ी सीट खाली हुई तो अता उर रहमान बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े और पहली बार विधानसभा पहुंचे. उस वक्त भाजपा ने कोई भी प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा था.

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इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने बसपा के लगभग तीन दर्जन से ज्यादा विधायक तोड़ लिए और सूबे में समाजवादी पार्टी की सरकार बन गई. बसपा से टूटने वाले विधायकों में अता उर रहमान भी थे. फिर वर्ष 2007 में विधानसभा चुनाव हुए और अता उर रहमान चुनाव हार गए. उस वक्त चुनाव हारने के बावजूद अता उर रहमान के सियासी कद में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया था लेकिन उनका ग्राफ गिरने की शुरुआत हो चुकी थी. उधर छत्रपाल गंगवार कुर्मी नेता के रूप में खुद को स्थापित करते जा रहे थे. उनकी प्रसिद्धि इस कदर बढ़ती जा रही थी कि लोग उन्हें भविष्य में पूर्व केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार के विकल्प के रूप में देखने लगे थे. इसी बीच वर्ष 2012 में विधानसभा चुनाव हुए और बसपा विरोधी लहर के बावजूद अता उर रहमान महज 18 वोट से चुनाव जीत सके थे. इसकी एक वजह यह भी बताई जाती है कि उस वक्त संतोष गंगवार ने अंदरखाने छत्रपाल की जगह अता उर रहमान को सपोर्ट किया था. हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है.

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ये वह दौर था जब नसीम अहमद सरकारी कर्मचारी थे और समाजसेवा के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान भी स्थापित कर चुके थे. वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव होने थे. मंत्री बनने के बावजूद अता उर रहमान क्षेत्र की जनता का दिल नहीं जीत पाए थे. पार्टी में भी उनका विरोध तेज हो चुका था मगर मुस्लिमों के पास कोई विकल्प न होने की वजह से अता उर रहमान मजबूरी में जरूरी बन गए थे. इसी दौरान सितारों ने करवट ली और नसीम अहमद ने नौकरी से वीआरएस ले लिया. वीआरएस लेने के बाद नसीम अहमद ने विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया. इसके बाद नसीम अहमद ने बहुजन समाज पार्टी ज्वाइन की और वर्ष 2017 में बसपा के टिकट पर बहेड़ी विधानसभा सीट से ताल ठोक दी. नसीम अहमद की जिंदगी का यह पहला चुनाव था लेकिन अता उर रहमान के लिए मुसीबत का सबब बन गया. जनता को एक साफ सुथरी छवि वाला नेता अता उर रहमान के विकल्प के तौर पर मिल चुका था. यही वजह रही कि वर्ष 2017 में जनता ने अता उर रहमान को पूरी तरह नकार दिया और पहले पायदान पर जहां छत्रपाल गंगवार रहे तो नंबर दो की कुर्सी अता उर रहमान की जगह राजनीति में पदार्पण करने वाले नसीम अहमद को सौंप दी. बस यहीं से अता उर रहमान का राजनीतिक ग्राफ कम होने लगा. वहीं, नसीम अहमद के लिए पहले ही चुनाव में नंबर दो की कुर्सी हासिल करन और अता उर रहमान जैसे दिग्गज व पूर्व मंत्री को पटखनी देना बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इस उपलब्धि से उत्साहित नसीम अहमद ने दोगुने जोश से मेहनत की और बहेड़ी नगर पालिका के चेयरमैन पद के चुनाव में न सिर्फ अता उर रहमान को धूल चटाई बल्कि छत्रपाल गंगवार के किले को भी ध्वस्त कर दिया. नसीम अहमद ने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाया और भाजपा की सरकार होने के बावजूद उनकी पत्नी चुनाव जीत गईं. अता उर रहमान अपनी पार्टी के उम्मीदवार को नहीं जिता सके. यह अता उर रहमान के लिए दूसरी बड़ी हार थी. तीसरा मौका त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का था लेकिन इन चुनावों में भी नसीम अहमद बाजी मार ले गए. चार जिला पंचायत सदस्य जिता ले गए, 65 फीसदी ग्राम प्रधान भी जिताए और सबसे दिलचस्प बात यह रही कि भाजपा की सरकार होने के बावजूद प्रधान संघ के सभी पदों पर नसीम अहमद के समर्थक ही काबिज हुए. यह सब नसीम अहमद ने अपने दम पर हासिल किया. पंचायत चुनावों में दम दिखाने के बाद नसीम अहमद ने समाजवादी पार्टी का रुख किया और यहां भी अता उर रहमान के न चाहते हुए भी सीधे लखनऊ जाकर समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली. अता उर रहमान के लिए यह बहुत बड़ा झटका माना जा रहा है. नसीम अहमद की सपा में एंट्री के साथ ही बसपा तो बहेड़ी में पूरी तरह से बिखर गई. साथ ही समाजवादी पार्टी का कुनबा भी बढ़ने लगा. लगभग 65 फीसदी ग्राम प्रधानों को नसीम अहमद ने गांव-गांव जाकर पार्टी में शामिल कराया. नसीम अहमद के समर्थक जिला पंचायत सदस्य भी समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हैं.

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इतना ही नहीं अता उर रहमान की उपेक्षा से आहत होकर समाजवादी नेता निष्क्रिय हो चुके थे अब वे भी नसीम अहमद के साथ खड़े नजर आ रहे हैं. रिछा सहित कुछ अन्य नगर परिषदों के चेयरमैन भी नसीम अहमद के साथ हैं. ऐसे में नसीम अहमद की टिकट की दावेदारी और मजबूत हो जाती है. इसकी एक वजह यह भी बताई जाती है कि अता उर रहमान के कुछ समर्थक आपराधिक प्रवृत्ति के हैं जिनसे जनता ही नहीं पार्टी के लोग भी परेशान हैं. उन्हें डर है कि अगर अता उर रहमान फिर से विधायक बने तो उनके समर्थक अराजकता का नंगा नाच करते नजर आएंगे. यही वजह है कि वे अब खुलकर अता उर रहमान के विरोध में उतर आए हैं. वर्तमान हालात अता उर रहमान के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान खड़े करते नजर आ रहे हैं. अब अता उर रहमान किसी के लिए भी मजबूरी में जरूरी नहीं रह गए. वहीं चुनाव हारने के बाद लगभग साढ़े तीन साल तक जनता से दूरी बनाना भी अता उर रहमान के राजनीतिक ग्राफ को कम कर रहा है. जनता के पास अब नसीम अहमद के नाम का मजबूत विकल्प है. बहरहाल, समाजवादी पार्टी किसे टिकट देगी और किसे नहीं इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही करेगा लेकिन अता उर रहमान की राजनीति के सूर्यास्त का आगाज फिलहाल होता दिखाई देता रहा है.

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