जम्मू-कश्मीर

दम तोड़ रही कश्मीरी कला, परंपरा को निगल गया बाहरी बाजार

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बदलता कश्मीर – 3
जम्मू कश्मीर से लौटकर नीरज सिसौदिया की रिपोर्ट
जम्मू कश्मीर में बदलाव की बयार ने वहां की पारंपरिक कला को भी प्रभावित किया है| बाहरी निवेशकों के लिए कश्मीर जहां बेहतर बाजार मुहैया करा रहा है वहीं कश्मीर की पारंपरिक कला दम तोड़ रही है| संसाधनों और प्रोत्साहन के अभाव में इसे उचित बाजार नहीं मिल पा रहा|
अनंतनाग के गांव डंगसीर के रहने वाले समीर बताते हैं कि उनके गांव में कश्मीरी कढ़ाई और कांगड़ी के कारीगरों की भरमार हुआ करती थी| एक दौर था जब कश्मीर आने वाला हर व्यक्ति यहां की कश्मीरी कढ़ाई का मुरीद हुआ करता था| छोटे-छोटे बुनकरों के लिए यह आमदनी का एक बेहतर जरिया था| पश्मीना शॉल पर कश्मीर की कारीगरी के लोग दीवाने हुआ करते थे| यह हस्तकला बहुत वक्त लेती थी| कभी-कभी तो एक 1 शॉल या एक चादर तैयार करने में ही पूरा महीना निकल जाता था लेकिन उस वक्त कश्मीर आने वाले पर्यटकों की यह पहली पसंद हुआ करती थी और बुनकरों को उनकी मेहनत की वाजिब कीमत भी मिल जाया करती थी| तब कश्मीर के पहाड़ों पर बाहरी बाजार इतना हावी नहीं था। घाटी में तो कई परिवार इसी काम में ही लगे हुए थे| पति-पत्नी और बच्चों समेत पूरा का पूरा परिवार यही काम करता था| साल भर की मेहनत के बाद सीजन का इंतजार किया जाता था| उन्हें कभी निराशा हाथ नहीं लगती थी| साल भर की आमदनी एक सीजन में ही हो जाया करती थी|

कश्मीरी कांगड़ी

वक्त बदला और जम्मू कश्मीर ने विकास के नए आयाम छुए| राजमार्गों की दशा कुछ सुधरी तो बाहरी बाजार की राह भी खुली| दिन-ब-दिन बाजार गुलजार होते गए और बाहरी वस्तुओं ने पारंपरिक कश्मीरी कारीगरी की जगह ले ली|
रामबन में गर्म कपड़ों की दुकान चलाने वाले मुश्ताक कहते हैं कि लुधियाना और जम्मू से सस्ता माल मिल जाता है तो फिर कश्मीरी माल क्यों खरीदें? ग्राहक भी लुधियाना का माल ज्यादा पसंद करते हैं| कश्मीरी कारीगरी बहुत महंगी हो चुकी है| जिन गांव में कलाकार रहते हैं वहां तक न तो सड़कें पहुंची हैं और न ही विकास| जो काम वह पूरा- पूरा महीना लगा कर हाथों से करते हैं वह काम मशीन चुटकियों में कर देती है| कश्मीरी कलाकार कीमत बहुत ज्यादा मांगते हैं। हालांकि, उनकी मेहनत के एवज में यह कीमत बेहद कम रहती है लेकिन बाजार में प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गई है| अन्य दुकानदार लुधियाना के माल को ही कश्मीरी माल बता कर सस्ते दामों पर बेच देते हैं| मजबूरी में हमें भी वही करना पड़ता है|


कश्मीरी कारीगर समीर कहते हैं कि हम जिस गांव में रहते हैं वह गांव पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के विधानसभा क्षेत्र के तहत पड़ता है| यहां की एक बड़ी आबादी बुनकरों की है| इस गांव में आज तक सड़क नहीं पहुंच पाई है| पारंपरिक कला अब दम तोड़ने लगी है| उचित दाम न मिलने पर कई परिवारों ने अपना यह पारंपरिक कारोबार बंद कर दिया है| अब ये लोग जो वस्त्र बनाते भी हैं वह सिर्फ अपने उपयोग के लिए ही बनाते हैं|

सरकारों ने कभी इन लोगों के हालात बदलने और कश्मीर की पारंपरिक कला को जिंदा रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किए| मशीनी युग में इनकी कला को समझने वाला कोई नहीं रह गया| यही वजह है कि आज यह कला अंतिम सांसें गिन रही है। विकास की राह में सियासत रोड़ा बन गई| महबूबा मुफ्ती का यह विधानसभा क्षेत्र तो है लेकिन उनके कुछ सिपाहसालारों की बदौलत यह गांव आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है| रोजगार की तलाश में कई परिवार पलायन कर चुके हैं| हुनर होने के बावजूद उन्हें अपने हुनर की उचित कीमत नहीं मिलती और गुजारा करना भी मुश्किल हो जाता है| कुछ परिवार अभी भी इस काम में लगे हुए हैं लेकिन वह भी इस पारंपरिक कला को कब तक जिंदा रख पाएंगे यह कहना फिलहाल मुश्किल है|
कश्मीर की फिजा तो बदली लेकिन बुनकरों की बदहाली भी साथ में लेकर आई| यह बुनकर विकास विरोधी नहीं है लेकिन सिर्फ चुनिंदा जगहों पर विकास होने से आक्रोशित हैं|
कश्मीरी कारीगर दिलनवाज कहते हैं कि एक दौर था जब कश्मीर आने वाला हर व्यक्ति कश्मीरी कला को यहां की निशानी के तौर पर ले जाता था| फिर वह चाहे पश्मीना शॉल हो या फिर हस्तकला से निर्मित चादरें। कश्मीरी फिरन और गर्म लेडीज सूट पर कश्मीरी कढ़ाई महिला पर्यटकों की पहली पसंद हुआ करती थी| उस वक्त मुंह मांगे दाम मिला करते थे| सामान की डिमांड इतनी होती थी कि उसे पूरा करने के लिए दिन रात एक करना पड़ता था| मगर वक्त ने सब कुछ बदल कर रख दिया| अब कोई पूछने वाला नहीं| विकास ने बाहरी बाजार का रास्ता खोला| युवाओं को रोजगार मिला लेकिन इससे सिर्फ शहरी दुकानदार ही लाभान्वित हो रहे हैं| जम्मू और कश्मीर का पैसा बाहरी राज्यों में जा रहा है| बाजारों का दायरा बढ़ा है और दुकानों की संख्या भी बढ़ी है। शहरी इलाकों के विकास ने ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी बढ़ा दी है| कल तक जो ग्रामीण बुनकर अच्छा खासा पैसा कमा लेते थे और अपनी रोजी खुशी खुशी चलाते थे| आज उन्हें बाजार में जगह नहीं मिल रही और वह किसी दुकान पर महज दो-चार हजार रुपए में नौकरी करने को मजबूर हैं|

                                                     क्रमश :

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