राजस्थान से लौटकर नीरज सिसौदिया की रिपोर्ट
राजस्थान के बैरवा समुदाय की निगाहें इन दिनों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के चेहरे पर टिकी हैं। सीटों के बंटवारे में इस समुदाय को इस बार प्रतिनिधित्व मिलेगा या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा| हालांकि, कांग्रेस अगर करौली – धौलपुर से बैरवा प्रत्याशी को मैदान में उतारती है तो उसे बैरवा बाहुल्य 16 जिलों की दस सीटों पर फायदा हो सकता है. साथ ही कांग्रेस को यह भी ध्यान रखना होगा कि टिकट बंटवारा योग्यता के आधार पर हो न कि भ्रष्टाचार के आधार पर जैसा कि विधानसभा चुनाव के दौरान सामने आया था और कांग्रेस को कई सीटें इसी के चलते गंवानी पड़ी थीं.
दरअसल, राजस्थान के लगभग 16 जिलों में करीब पैंतीस लाख से भी अधिक आबादी बेरवा समुदाय की है| यही वजह है कि कांग्रेस इस वोट बैंक को हासिल करने के लिए हमेशा से ही करौली धौलपुर आरक्षित सीट से बैरवा उम्मीदवार उतारती रही है| लेकिन इस बार इस समुदाय को प्रतिनिधित्व न मिलने की चर्चा जोरों पर है| अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस को प्रदेश के 25 लाख वोटरों से हाथ धोना पड़ सकता है| अगर करौली धौलपुर को छोड़कर कांग्रेस किसी अन्य सीट से बैरवा उम्मीदवार उतारती है तो उसे वह सीट भी गंवानी पड़ेगी क्योंकि किसी और आरक्षित सीट पर बैरवा समुदाय के वोट अकेले दम पर जिताने का दम नहीं रखते हैं। करौली धौलपुर को छोड़कर अन्य सीटों पर अगर बैरवा वोट कटेगा तो सीधा बहुजन समाज पार्टी के खाते में जाएगा| जिससे सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को होगा।
करौली-धौलपुर सीट से कांग्रेस हमेशा बैरवा को प्रत्याशी बनाती आई है. पिछली बार मोदी लहर के बावजूद उस बैरवा उम्मीदवार ने भी भाजपा को कांटे की टक्कर दी थी जिसका अपना कोई सियासी वजूद भी नहीं था और न ही वह कोई बड़ा या राष्ट्रीय चेहरा था. उससे पहले यहां से कांग्रेस के खिलाड़ी लाल सांसद बने थे लेकिन लोकसभा मेंं सवाल उठाने पर मामला सेट करने के आरोपों के चलतेे विवादों मेें आ गए थे.
इस बार कांग्रेस के पास डॉ. बत्तीलाल बैरवा के रूप में एक ऐसा चेहरा है जो न सिर्फ बैरवा समुदाय से ताल्लुक़ रखता है बल्कि जाटव वोट साधने में भी सक्षम हैं क्योंकि उनकी पत्नी पूजा जाटव समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं. जातीय समीकरण के साथ ही डॉ. बत्तीलाल अन्य दावेदारों की तुलना में बहुत बड़ा व काबिल चेहरा हैं. बत्ती लाल वही चेहरा है जिसने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की परंपरा को तोड़ते हुए इतिहास रचा था और जेएनयू के पहले दलित छात्र संघ अध्यक्ष बनने का गौरव हासिल किया. बत्ती लाल का सफर यहीं नहीं थमा बल्कि आरएसएस की नाक में दम करने वाला करौली धौलपुर का एकमात्र नेता भी बनकर दिखाया. डॉ बत्ती लाल वही शख्स है जिसने दस साल तक जेएनयू में आरएसएस की शाखा ही नहीं लगने दी. इतना ही नहीं बाबरी विध्वंस के दिनों में बत्तीलाल ने लाल क्रष्ण आडवाणी को जेएनयू में घुसने तक नहीं दिया था. डॉ बत्तीलाल एकमात्र ऐसे नेता हैं जो आज भी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व करते हुए आरएसएस के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं. वह प्रदेश कांग्रेस के सचिव भी हैं और यूथ कांग्रेस में कई अहम जिम्मेदारियां भी निभा चुके हैं. ऐसे में वह कांग्रेस के लिए बेहतर विकल्प हो सकते हैं. प्रदेश में सक्रिय रहने के चलते बैरवा बाहुल्य सीटों पर उनका अच्छा प्रभाव भी है. इसके अलावा लखीराम बैरवा और खिलाड़ी लाल बैरवा भी टिकट की लाइन में तो हैं लेकिन उपलब्धियों के नाम पर उनके हाथ खाली हैं. जनता भी इस बार बदलाव चाहती है और पुराने चेहरे पर दांव खेलना कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं होगा. बहरहाल, सीटों के बंटवारे में सिफारिश की जगह अगर काबिलियत के आधार पर करौली धौलपुर सीट पर प्रत्याशी उतारा जाएगा तो निश्चित तौर पर कांग्रेस के हाथों से यह सीट किसी भी सूरत में भाजपा नहीं ले पायेगी.
भाजपा इस लड़ाई में सिर्फ करौली धौलपुर ही नहीं बल्कि अजमेर, जयपुर, दौसा, जयपुर ग्रामीण समेत कई सीटें गंवा सकती है. बहरहाल, पार्टी यहां से किसे मैदान में उतारेगी और किसे नहीं, यह तो एक दिल्ली में होने वाली बैठक में तय हो जायेगा. लेकिन इस सीट पर सिफारिश और पैसे पर टिकट बांटी जाती है या काबिलियत पर यह देखना दिलचस्प होगा. साथ ही करौली -धौलपुर से कांग्रेस प्रत्याशी की घोषणा से प्रदेश की दस सीटों की सियासी तस्वीर भी साफ हो जायेगी.