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झारखंडी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक हैै सोहराय, जानिये पर्व की पूूूूरी कहानी  

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बोकारो थर्मल। रामचंद्र कुमार अंजाना 
सोहराय पर्व से मानव और पशुओं के बीच स्थापित होता है गहरा संबंध -इसको गुफा सोहराय कला या कोहबर कला है का स्रोत -इसको गुफा दुनिया के प्राचीनतम गुफा में से एक है संजय सागर सोहराय पर्व हमारे सभ्यता व संस्कृति का प्रतीक है. यह पर्व पालतू पशु और मानव के बीच गहरा प्रेम स्थापित करता है. यह पर्व भारत के मूल निवासियों के लिए विशिष्ट त्यौहार है. क्योंकि भारत के अधिकांश मूल निवासी खेती -बारी पर निर्भर है. खेती बारी का काम बेलो व भैंसों के माध्यम से की जाती है. इसीलिए सोहराय का पर्व में पशुओं को माता लक्ष्मी की तरह पूजा की जाती है. इस दिन बैलों व भैंषों को पूजा कर किसान वर्ग धन-संपत्ति वृद्धि की मांग करते हैं. सोहराय का पर्व झारखंड के सभी जिले में मनाए जाते हैं और इसकी शुरुआत दामोदर घाटी सभ्यता के इसको गुफा से शुरू हुई थी. यहां आज भी सोहराय कला प्राचीन मानवों द्वारा बड़े -बड़े नागफनी चट्टानों में बनाएं गए है. इसे शैल चित्र या शैल्दीर्घा भी कहा जाता है. सोहराय पर्व कब मनाया जाता है कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा तिथि अर्थात दिवाली के दुसरे दिन मनाया जाता है. सालों भर सुख समृधि की की कामना पशुओ से करते हैं. इस पर्व के दिन किसान वर्ग गौशाला को गोबर व मिट्टी से लिपाई पुताई करते हैं एवं सजाते हैं पशुओं को भी स्नान करके तेल मालिश किया जाता है ,उनके माथे व सींगों में सिन्दूर टीका लगाया जाता है ,लाल रंग से पशुओं के शरीर पर गोलाकार बनाते है. उसके बाद उनकी पूजा की जाती है. सात प्रकार के अनाज से बने दाना व पकवान को पशुओं को खिलाया जाता है. पशुओं का देखभाल करने वाले चरवाहा या गोरखिया को भी नए- नए कपड़े दे कर उसे सम्मानित किया जाता हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस तिथि तक प्रथम फसल धान तैयार हो चुका होता है ,इन पशुओं के सहयोग से , तो एक लाइक और आभार प्रकट करने के लिए किसानों एवं पशुपालक द्वारा पूजा अर्चना किया जाता है. इसके बाद सोहराय मेला लगाया जाता है.

सोहराय कला व कोहबर कला का जन्म इसको गुफा से मैं जब मैट्रिक में पढ़ाई कर रहा था. उस वक्त त्रिपुरा व झारखंड राज्य के पत्रकारों की टीम इसको गुफा का अवलोकन करने आई थी. मैं भी उस टीम में शामिल था. जब मैं पहली बार इसको गुफा के शैल चित्र को देखा तो दांतो तले उंगली दबा लिया. शैल चित्रों को देखकर कई तरह के ऐतिहासिक सवाले मन में उठने लगे. इसको गुफा से लौटने के बाद मैंने कई तरह के आरकोलॉज़ी से संबंधित पुस्तके को अध्ययन किया और पाया कि इसको गुफा के शैल चित्रों में कोहबर कला प्रतीत है. ऐतिहासिक शैल चित्रों के आधार पर माना जाता है कि सोहराय का पर्व झारखंड के बड़कागांव से शुरू हुआ था. इसका प्रमाण दामोदर घाटी सभ्यता के प्राचीन इसको गुफा के शैल चित्रों में देखने को मिलता है. इतिहास कारों के अनुसार इसको गुफा की शैलचित्र सुमेर घाटी सभ्यता के समकक्ष माना जाता है. सुमेर घाटी सभ्यता को विश्व का सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है. लेकिन अब इस पर्व मनाने की परंपरा झारखंड के अन्य राज्यों में भी है. इसके अलावे छत्तिसगढ़,उत्तराखंड,बिहार एवं भारत के अन्य आदिवासी इलाकों में मनाया जाता है. कैसे शुरू हुआ यह उत्सव सोहराई कला एक कला है. इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बड़का गॉव आसपास के क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ था.

इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं. कहा जाता है कि करणपुरा राज वा रामगढ़ राज के राजाओं ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया था. जिसकी वजह से यह कला गुफाओं की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों में अपना स्थान बना पाने में सफल हुई थी. लेकिन अब अत्याधुनिक व फैशन के जमाने में सोहराय कला धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में सोहराय कला या कोहबर कला का आज भी प्रचलन है।हजारीबाग जिले के बड़कागांव की सोमरी देवी,पचली देवी,सारो देवी,पातो देवी,रूकमणी देवी आज भी शादी -विवाह या कोई पर्व त्यौहार के अवसर पर सोहराय कला आज भी बनाती है. इस कला के पीछे एक इतिहास छिपा है. जिसे अधिकांश लोग जानते तक नहीं हैं. वह बताती हैं कि कर्णपुरा राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता थाई फत्रं उस कमरे की दीवारों पर यादगार के लिये कुछ चिन्ह अंकित किये जाते थे ,ये चिन्ह ज्यादातर सफेद मिट्टी, लाल मिट्टी, काली मिट्टी या गोबर से बनाये जाते थे । इस कला में कुछ लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे ।

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