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#ayodhyaverdict : मजहबी सियासत के अंत का आगाज़

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नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली

मंदिरों पर जान की कुर्बां शिवालों पर हुए कितने काले तजुर्बे उजली किताबों पर हुए

मजहबी सियासत के कुछ ऐसे ही काले तजुर्बे हिंदुस्तान के अतीत के पन्नों में काले अध्याय के रूप में दर्ज हैं| लगभग तीन दशक से मजहबी सियासत हिन्दुस्तान की हवाओं में नफरत का जहर घोल रही थी. आज उस मजहबी सियासत के अंत का आगाज की शुरुआत न्याय के मंदिर ने कर दी है.

अब नजर डालते हैं अतीत के पन्नों पर. आजादी के बाद हिन्दुस्तान में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था| हिंदुस्तान की सत्ता पर एक ही परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी काबिज होता जा रहा था| मगर नेहरू के दुनिया से रुखसत होते ही विरोधी खेमा सियासत की सीढ़ियों पर कदम दर कदम आगे बढ़ने लगा| पहले जनसंघ फिर जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी का गठन होने के साथ ही हिंदुस्तान की सियासत एक नई दिशा मेें चल पड़ी थी. नए सियासी समीकरण तैयार होने लगे थे| सियासी जमीन पर वजूद की तलाश में निकली भारतीय जनता पार्टी को उस वक्त एक ऐसी बैशाखी की जरूरत थी जो सत्ता के सफर में उसका सहारा बन सके| बस यहीं से मजहबी सियासत की बुनियाद पड़ी और भगवाधारियों ने श्री राम के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दीं|

सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा

बात 1980 की है जब बीजेपी अस्तित्व में आई थी| अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के गठन के साथ ही उठने लगा था लेकिन उसे बड़े पैमाने पर सियासी संरक्षण नहीं था| हालांकि उस वक्त जगद्गुरु रामभद्राचार्य और अशोक सिंहल जैसे लोग इस आंदोलन का हिस्सा बन चुके थे. लेकिन उस वक्त यह मुद्दा सियासी शक्ल नहीं ले सका था|

भारतीय जनता पार्टी ने जब 1984 का लोकसभा चुनाव लड़ा तो उसके हिस्से में सिर्फ 2 सीटें ही आईं| इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने मजहबी सियासत का रास्ता पूरी तरह अख्तियार कर लिया और 1989 के पालमपुर अधिवेशन में राम मंदिर आंदोलन को धार देने का फैसला किया गया| सियासत के वेंटिलेटर पर दम तोड़ती भारतीय जनता पार्टी को यहीं से संजीवनी मिली और 1989 के लोकसभा चुनाव में भले ही भाजपा सत्ता में नहीं आ सकी लेकिन उसने 85 सीटों पर शानदार जीत दर्ज की| इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के हौसले बुलंद हो गए और उसने श्रीराम का चोला पूरी तरह पहन लिया| नतीजा यह हुआ कि 1990 में मध्यप्रदेश और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गई| जीत से उत्साहित भाजपा ने श्री राम मंदिर के आंदोलन को और हवा देना शुरू किया| इस आंदोलन के सूत्रधार के रूप में दो चेहरे सामने आए पहला विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल और दूसरे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी|

अशोक सिंहल और आडवाणी

25 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ, गुजरात से राम मंदिर आंदोलन को लेकर एक रथ यात्रा शुरू की गई जो 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचनी थी| एक तरफ राम मंदिर आंदोलन के समर्थन में भाजपा खड़ी थी तो दूसरी तरफ उसके विरोध की सियासत थी उठान पर थी| बिहार में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे और वह इसका खुलकर विरोध कर रहे थे| 23 अक्टूबर 1990 को जब यह यात्रा समस्तीपुर पहुंची तो लालू प्रसाद यादव के आदेश पर लालकृष्ण आडवाणी गिरफ्तार कर लिए गए| मगर राम मंदिर आंदोलन खत्म नहीं हुआ था| 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों की भीड़ बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ रही थी| उस वक्त अयोध्या में लाखों लोगों का जुटान हुआ था| तब उत्तर प्रदेश की कमान समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के हाथों में थी| मुलायम सिंह ने कारसेवकों पर गोली चलाने के आदेश दिए जिसमें 5 कारसेवकों की मौत हो गई| कारसेवक इस पर भी रुके नहीं और 2 नवंबर 1990 को एक बार फिर उनका आंदोलन चरम पर पहुंचा तो मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर गोली चलाने के आदेश दिए| इस बार पुलिस की गोलियों से लगभग एक दर्जन लोगों की मौत हो गई थी|

बाबरी विध्वंस के दौरान आडवाणी और अन्य

भारतीय जनता पार्टी को कारसेवकों की मौत का बड़ा सियासी फायदा मिला और 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 120 सीटों पर कब्जा जमा लिया| वहीं, उत्तर प्रदेश में बड़ा उलटफेर हुआ और मुलायम सिंह यादव 1991 में बुरी तरह चुनाव हार गए| भारतीय जनता पार्टी ने यह चुनाव राम मंदिर के मुद्दे पर ही लड़ा था और जीतने के बाद कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने| कल्याण सिंह के सत्ता में आते ही भाजपा का हौसला और बुलंद हो गया| उनकी ताजपोशी के साथ ही राम मंदिर आंदोलन और व्यापक रूप लेने लगा| हालांकि अब तक सुप्रीम कोर्ट की ओर से विवादित जमीन पर किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगा दी गई थी| लेकिन कारसेवक मानने को तैयार नहीं थे और 1992 में बाबरी विध्वंस का मामला सामने आया| लालकृष्ण आडवाणी मुरली मनोहर जोशी उमा भारती और अशोक सिंघल जैसे नेताओं की मौजूदगी में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी| उस वक्त जो एकता यात्रा निकाली गई थी उसके संयोजक नरेंद्र मोदी ही थे|

बाबरी विध्वंस की फाइल फोटो

बाबरी विध्वंस के दौरान केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी और राज्य में भाजपा के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे| 6 दिसंबर 1992 को जैसे ही बाबरी विध्वंस की खबर आई तू केंद्र और राज्य सरकार के साथ ही सुप्रीम कोर्ट भी हैरत में पड़ गया| नरसिम्हा राव ने उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर दिया जबकि कल्याण सिंह पहले ही इस्तीफा दे चुके थे| उस वक्त कल्याण सिंह ने कहा था कि यह सरकार राम मंदिर के नाम पर ही सत्ता में आई थी और आज उसी के नाम पर खत्म हो रही है| 1996 में फिर राम मंदिर का मुद्दा उठा और भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सत्ता में आ गई| अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बनाए गए लेकिन उनकी सरकार 13 दिन से ज्यादा नहीं चल सकी| इसके बाद 1998 में फिर से राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा सत्ता में आई लेकिन इस बार सिर्फ 13 महीने ही उसकी सरकार चली| 1999 में दोबारा भारतीय जनता पार्टी को सत्तासीन होने का मौका मिला और उसकी सरकार 2004 तक पूरे 5 साल चली| सत्ता में आने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेई सरकार उस वक्त राम मंदिर का निर्माण नहीं करा सकी| 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले लालकृष्ण आडवाणी एक बार फिर रथ पर सवार हुए| लेकिन जनता ने उन्हें नकार दिया| मजहबी सियासत के सूत्रधार रहे लालकृष्ण आडवाणी की भगवान राम ने भी नहीं सुनी और उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना कभी पूरा नहीं हो सका| 2009 में आडवाणी की आखिरी उम्मीद भी खत्म हो गई और राम मंदिर के मुद्दे पर जनता ने उन्हें नकार दिया|

2014 में नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर राम मंदिर और हिंदुत्व का मुद्दा उछाला| श्रीराम के आशीर्वाद से मोदी सत्ता तक तो पहुंच गए लेकिन राम मंदिर फिर से नहीं बन सका| तीन दशक तक भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर के मसले को भुनाती रही लेकिन फैसला सुप्रीम कोर्ट को ही करना पड़ा| भाजपा के हर चुनावी घोषणा पत्र में राम मंदिर जरूर दर्ज होता रहा लेकिन सरकार कभी उसके लिए अध्यादेश कभी नहीं लाई और राम मंदिर भाजपा के हाथ से निकल गया. अगर मोदी सरकार अध्यादेश लाकर मंदिर बनवा लेती तो इसका पूरा क्रेडिट ले सकती थी लेकिन शायद श्री राम को यह मंजूर नहीं था. हालांकि, संघ की भूमिका इसमें अहम है क्योंकि राम जन्मभूमि न्यास संघ का ही हिस्सा है जिसने इस मामले की जोरदार पैरवी की और अंत में जीत हासिल की.

सुप्रीम कोर्ट की इस ऐतिहासिक फैसले ने भाजपा की मजहबी सियासत पर ब्रेक लगा दी है| धर्म के नाम पर हिंदू- मुस्लिम के बंटवारे की राजनीति अब ज्यादा दिन की मेहमान नहीं लगती. फिलहाल इसका सबसे बड़ा मुद्दा हिंदुओं की तरफ से तो अब पूरी तरह से खत्म हो गया| अगर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सम्मान करते हुए अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो जाता है तो धार्मिक सियासत का यह मुद्दा हमेशा के लिए दफन हो जाएगा|

राम मंदिर के मसले पर अब भगवा ब्रिगेड राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाएगी और न ही हिंदू-मुस्लिम के नाम पर गुमराह करने वाले सियासत दान मुस्लिमों को एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर सकेंगे| मजहबी सियासत सिर्फ भाजपा ने ही नहीं की बल्कि समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल समेत विभिन्न सियासी दलों ने भी की है और आज भी करती आ रही हैं| ऐसे दलों को भी सबक सिखाने का वक्त आ गया है. भाजपा ने हिंदुत्व के नाम पर तो विपक्षी पार्टियों ने मुस्लिमों के नाम पर वोट बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी| सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला हिंदुस्तान की राजनीति को नई दिशा देगा| मजहबी सियासत के बहकावे में आने वाले धर्मावलंबी भी अब यह समझ जाएंगे कि मजहबी सियासत सिर्फ पाले बदलने का नाम है और कुछ नहीं| हिंदुस्तान से मजहबी सियासत के अंत की यह एक शुरुआत है| यह देश का सबसे बड़ा धार्मिक मुद्दा था जिस पर सियासी खेल पिछले तीन दशक से चला आ रहा था| अवाम को भी अब यह समझना होगा कि वह मजहबी सियासत के बहकावे में न आए और नया हिंदुस्तान बनाए| किसी शायर ने खूब कहा है कि

ऐ जिंदगी मैं तुझे कब तक बचा के रखूंगा, मौत हर पल निवाले बदलती रहती है 

खुदा बचाए हमें मजहबी सियासत से जो रोज रोज पारले बदलती रहती है|

इसलिए मजहब के नाम पर सियासतदानों के हाथों की कठपुतली न बनें.

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