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खतरे में ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ की सियासत

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नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
महाराष्ट्र की सियासी उठापटक और झारखंड की बदलती राजनीतिक तस्वीर ने मंडल और कमंडल की लगभग तीन दशक पुरानी सियासत पर ग्रहण लगा दिया है. खास तौर पर महाराष्ट्र में जिस तरीके से मंडल और कमंडल की सरकार अस्तित्व में आई है, वह कई अहम सवाल भी पीछे छोड़ गई है. सबसे बड़ा सवाल शिवसेना की विचारधारा को लेकर खड़ा किया जाने लगा है कि क्या शिवसेना अब सेक्यूलर हो गई है? क्या उसने अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को त्याग दिया है? क्या सीएम का पद शिवसेना के लिए उसकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा से ऊपर हो गया है? क्या भाजपा और शिवसेना का हिन्दुत्व महज सियासी ढोंग था? ऐसे कई सवाल हैं जो बदलते राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उठने लाजमी हैं. एक पत्रकार ने प्रेस कांफ़्रेंस के दौरान शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश की थी लेकिन जवाब देने की जगह ठाकरे भड़क गए और सेकुलर शब्द का मतलब पूछने लगे. ये सब सियासी घटनाक्रम इशारा करते हैं कि अब मंडल और कमंडल का भांडा फूट चुका है और सियासत के एक युग के अंत की शुरुआत हो चुकी है.
मंडल और कमंडल की सियासत को समझने के लिए सबसे पहले 90 के दशक का रुख करना होगा. दरअसल, 80 के दशक के अंत में जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल के दौरान बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में गठित मंडल आयोग ने पिछड़ी जाति के लोगों को नौकरी एवं शिक्षा के क्षेत्र में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की थी. लगभग दस साल तक इन सिफारिशों का कोई सुधलेवा नहीं था. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश के सियासी हालात बदलने लगे थे. इस दौरान कई ऐसे सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिसकी वजह से कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी थी. वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव के साथ ही भारतीय राजनीति के एक नए दौर का आगाज हुआ. यह दौर गठबंधन की सरकारों का दौर था. इसी दौरान भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह सामाजिक न्याय के मसीहा बनकर उभरे और भारतीय राजनीति को नई दिशा देते हुए उन्होंने आरक्षण का कार्ड खेला. वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए पिछड़ों की राजनीति का आगाज कर दिया. वीपी सिंह के इस कदम ने पिछड़ी जातियों का कद बढ़ा दिया और उन लोगों का काम भी आसान कर दिया जो इस वर्ग की राजनीति में सियासी जमीन तलाश रहे थे. इसके बाद पिछड़ी जातियों के विकास की आड़ में कई नए सियासी दल अस्तित्व में आ गए. इन्हीं परिस्थितियों का फायदा उठाकर भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा उछाला और कमंडल की सियासत का आगाज किया. धर्म और जाति की राजनीति का यह उद्भव काल था.

Maharashtra politics : फकीरों केे दर पर सियासत के ‘शाह’ – India Time 24 https://indiatime24.com/2019/11/27/maharashtra-politics/#.Xd3lAwaXif0.whatsapp

वामपंथियों के सफाए में मंडल की सियासत ने अहम भूमिका निभाई और संघ का काम और भी आसान हो गया. मंडल की सियासत ने कमंडल को रोकने की बजाय उसके लिए राह आसान करने का काम किया. हिन्दुत्व की इस बी टीम ने वो कर दिखाया जिसे संघ अपने सवर्णवादी ढांचे के कारण नहीं कर पा रहा था. यह मंडल की सियासत का ही असर था कि पिछड़े और दलित वर्ग के लोग वामपंथियों से दूर होते जा रहे थे. वामपंथी नेतृत्व पर सवर्णवाद का आरोप थोपा गया और पिछड़े बड़ी संख्या में भाजपा का हिस्सा बनने लगे. इसके बाद भारतीय सियासत के पतन का आगाज हुआ. मंडल और कमंडल की सियासत पर लगभग तीस साल से चुनाव लड़े जा रहे थे. मंडल और कमंडल ने हमेशा भारतीय राजनीति को उल्टी दिशा में धकेला है. भाजपा की धर्म आधारित राष्ट्रवाद की विचारधारा ने ही जातिवादी राजनीति का विकल्प तैयार किया. भाजपा ने रामबिलास पासवान, अनुप्रिया पटेल और उपेंद्र कुशवाहा जैसे जातिवादी विचारधारा के प्रतिनिधियों को अहमियत दी. इसके पीछे उसकी मंशा निश्चित तौर पर मंडल को साधने की थी. लेकिन भाजपा कभी बसपा, सपा और राजद की तरह मंडल की सियासत को अपना ट्रंप कार्ड नहीं बना सकी.

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मंडल की तर्ज पर देशभर में आरक्षण की सियासत गर्माने लगी. कभी पाटीदार, कभी गुर्जर तो कभी जाट आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकलता रहा और सियासतदानों के लिए सत्ता की राह आसान करता गया. मंडल और कमंडल का यह सियासी खेल उस वक्त औंधे मुंह गिर पड़ा जब महाराष्ट्र में शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गई. बात इतनी बढ़ गई कि शिवसेना ने कमंडल को छोड़ धर्मनिरपेक्ष ताकतों का दामन थाम लिया. वहीं झारखंड चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के बादशाह अमित शाह मंडल की सियासत करते नजर आए. अयोध्या विवाद पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भी कमंडल की सियासत को काफी हद तक कमजोर कर दिया है. इसे भारतीय राजनीति के एक नए युग का आगाज कहा जा सकता है. महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का साथ मिलकर सरकार बनाना इसी नए युग का संकेत दे रहा है.

वहीं, झारखंड में कभी भारतीय जनता पार्टी का साथ निभाने वाले दिशोम गुरु शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन आज महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बन चुके हैं. जनता के साथ ही सियासी दल भी यह समझ चुके हैं कि अगर सत्ता हासिल करनी है तो मंडल और कमंडल की सियासत से दूरी बनानी ही होगी. महाराष्ट्र में जिस तरह से विपरीत विचारधाराओं ने मिलकर सरकार बनाई है उससे यह साफ हो गया है कि सत्ता के लिए अपनाई गई विचारधारा को सत्ता के लिए दरकिनार भी किया जा सकता है.

बहरहाल, जिस तरह से सियासी दल एक-दूसरे का दामन थाम रहे हैं उससे यह स्पष्ट हो गया है कि मंडल और कमंडल की राजनीति अब चंद दिनों की मेहमान है. झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद स्थिति और भी साफ हो जाएगी. भारतीय राजनीति के लिए यह एक शुभ संकेत है.

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