नीरज सिसौदिया, बरेली
बात आजादी से पहले की है। उस वक्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जुदा नहीं हुए थे। यही वजह थी कि लाहौर की तेजी सूरी और इलाहाबादी हरिवंश राय बच्चन की मोहब्बत की राहें मुश्किल नहीं थीं। और इस खूबसूरत मोहब्बत का गवाह बना अपना शहर बरेली। लगभग 80 साल पहले लाहौर की तेजी सूरी अगर बरेली नहीं आतीं तो शायद भारतीय सिनेमा को अमतिाभ बच्चन के रूप में सदी का महानायक नहीं मिल पाता। हरिवंश राय बच्चन उस दौर में अपनी अलग पहचान बना चुके थे। साल 1941 में क्रिसमस की छुट्टियां चल रही थीं। कुछ वक्त पहले ही हरिवंश राय बच्चन अपने पिता और पहली पत्नी दोनों को खो चुके थे। 31 दिसंबर का दिन था। अंदर से पूरी तरह टूट चुके हरिवंश राय बरेली में अपने दोस्त प्रोफेसर ज्योति प्रकाश के सिविल लाइंस में कंपनी बाग के पास स्थित घर पहुंचे। हरिवंश राय बच्चन की नौकरी भी बरेली कालेज में लगी थी लेकिन उन्होंने ज्वाइन नहीं की थी। बहरहाल, बच्चन के अलावा प्रोफेसर साहब के घर में एक दूसरी मेहमान भी थीं। ये मेहमान कोई और नहीं बल्कि तेजी सूरी थीं। हरिवंश राय बच्चन और तेजी सूरी की यह पहली मुलाकात थी जो 31 दिसंबर 1941 की सुबह प्रोफेसर साहब के घर चाय पर हुई थी। इस मुलाकात का जिक्र खुद बच्चन साहब ने किया है, वह लिखते हैं कि उनका रूप पहली नजर में ही किसी को भी अभिभूत करने के लिए काफी था। बच्चन साहब साहित्यकार थे तो तेजी सूरी भी मनोविज्ञान की प्रोफेसर थीं। तेजी की सगाई एक विदेश में पले-बढ़े लड़के से हो चुकी थीं लेकिन तेजी इस बेमेल विचार वाले लड़के को अपना हमसफर नहीं बनाना चाहती थीं। उन दिनों तेजी की प्रिंसिपल प्रेमा जौहरी थीं। प्रेमा बरेली की रहने वाली थीं और तेजी के दिल की बात को भी अच्छी तरह जानती थीं। प्रेमा के पति प्रेम प्रकाश जौहरी उन दिनों बरेली कालेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और बच्चन जी के अच्छे दोस्त भी थे। एक तरफ तेजी बेमेल संबंधों से असहज थीं तो दूसरी तरफ बच्चन साहब अपनी पहली पत्नी की मौत से आहत थे। अतः जौहरी साहब के मन में इन दोनों टूटे हुए दिलों को जोड़ने का ख्याल आया।
31 दिसंबर की रात को इलाके के नामी वकील रामजी शरण सक्सेना के घर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसमें तेजी और बच्चन साहब एक-दूसरे के करीब बैठे थे। रात को जब संगीत समारोह से लौटे तो प्रकाश जी ने बच्चन साहब को नए साल पर एक कविता सुनाने का आग्रह किया। जैसे ही बच्चन साहब ने कहा, उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा, तो तेजी की आंखें नम हो गईं। उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और बच्चन साहब भी अपने आंसू रोक नहीं पाए। यह देख प्रेमा जौहरी और उनके पति कमरे से बाहर चले गए। बच्चन साहब इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं, हम दोनों एक-दूसरे के गले से लिपटकर रोने लगे, 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि दो अजनबी जीवनसाथी हो चुके थे। नए साल की सुबह में सब-कुछ पूरी तरह से बदल चुका था। प्रकाश जी ने दोनों के गले में फूलमालाएं डालकर दोनों की सगाई की घोषणा कर दी। इस तरह दोनों का प्यार परवान चढ़ा और तेजी अपने पिता का आशीर्वाद लेने के लिए लाहौर चली गईं तो बच्चन साहब इलाहाबाद जाकर शादी की तैयारियों में जुट गए। चार जनवरी 1942 को दोनों हमेशा के लिए एक होने से पहले जुदा हो गए।

साधना का नहीं तेजी बच्चन का झुमका गिरा था बरेली में
सल 1966 में आई फिल्म मेरा साया का गीत झुमका गिरा रे काफी मशहूर हुआ। उस दौर की मशहूर अदाकारा साधना पर फिल्माए गए इस गीत ने बरेली शहर को भी देशभर में मशहूर कर दिया था। लेकिन इस गीत की कहानी भी तेजी सूरी और हरिवंश राय बच्चन की मोहब्बत से जुड़ी हुई है। वर्षों बाद बरेली के डेलापीर चैराहे पर 14 मीटर का झुमका लगा कर इस चैराहे का नामकरण भी झुमका चैराहे के नाम पर कर दिया गया है। इसी वजह से बरेली का झुमका एक बार फिर से सुर्खियों में है। अब बात करते हैं कि आखिर गीत झुमका गिरा रे का विचार गीतकार राज मेहंदी अली खां के दिमाग में कैसे आया। दरअसल, उन दिनों तेजी और बच्चन साहब का प्यार परवान चढ़ चुका था लेकिन इस प्यार को अभी मंजिल का इंतजार था। दोनों ने शादी नहीं की थी। इस पर दोस्त अक्सर उनसे शादी के बारे में पूछा करते थे। एक कार्यक्रम में राज मेहंदी अली खां भी थे और तेजी व बच्चन साहब भी उसमें शरीक हुए। जब तेजी से पूछा गया कि ये सब कब तक चलेगा तो तेजी ने बड़े ही खूबसूरत अंदाज में कहा कि मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में गिर गया है। मेहंदी साहब के जेहन में यह किस्सा बसा हुआ था। जब मेरा साया फिल्म के लिए गीत लिखने की बात चली तो मेहंदी साहब को यह किस्सा याद आ गया और तेजी के झुमके पर उन्होंने साधना पर फिल्माया गया मशहूर गीत झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में लिख डाला।