नीरज सिसौदिया, बरेली
उत्तर प्रदेश की अयोध्या नगरी में श्री राम मंदिर के निर्माण को लेकर पूरा देश उत्साहित है. खासतौर पर हिन्दू समुदाय के उन लोगों को यह किसी नामुमकिन ख्वाब के पूरा होने सरीखा लग रहा है जो मंदिर निर्माण की आस ही छोड़ चुके थे. श्री राम का भव्य मंदिर बने यह लाखों करोड़ों रामभक्तों का सपना है. यही वजह है कि अब इस मंदिर के निर्माण के लिए भारतीय जनता पार्टी की ओर से निधि संग्रह अभियान चलाया जा रहा है. इसे लेकर भाजपाई बेहद उत्साहित हैं लेकिन इस अति उत्साह में संवैधानिक पदों पर बैठे कुछ लोग अपने पद की मर्यादा को भी भूल चुके हैं. इनमें जहां राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का नाम भी शामिल है, वहीं बरेली नगर निगम के मेयर डा. उमेश गौतम भी शामिल हैं. एक देश का प्रथम नागरिक है तो दूसरा बरेली शहर का. राष्ट्रपति ने जहां मंदिर निर्माण के लिए पांच लाख एक सौ रुपये दिये हैं वहीं मेयर उमेश गौतम ने 21 लाख रुपये की समर्पण निधि दी है. अब सवाल यह उठता है कि अगर दोनों ने चंदा दे ही दिया है तो इसमें बुराई ही क्या है? वे भले ही राष्ट्रपति हों या मेयर लेकिन एक आस्थावान हिन्दू भी तो हैं. उन्हें अपनी आस्था के अनुसार चंदा देने का हक क्यों नहीं है? लेकिन सोचनीय पहलू यह है कि क्या मेयर एक आम नागरिक होता है? क्या संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को अपने धर्म या जाति के प्रति निष्ठा का इस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन करना चाहिए? खासतौर पर ऐसे मामले में जो विवादित रहा हो और जिसके लिए लोगों को अपनी जान देनी पड़ी हो. मेयर अपने पद की महत्ता और गरिमा को नहीं समझ पाए. वह भूल गए कि मेयर किसी जाति या धर्म विशेष का नहीं होता. उसका सिर्फ एक धर्म होता है जिसे सामाजिक धर्म कहा जाता है. माना कि मेयर को अपनी आस्थाएं प्रिय हैं. ऐसे में वे गुप्त दान भी कर सकते थे. इससे उनकी आस्था भी प्रभावित नहीं होती और पद की मर्यादा भी बनी रहती लेकिन मेयर ने ऐसा नहीं किया. शायद उन्हें डर रहा होगा कि कहीं गुप्त दान करने से श्रीराम दरबार में भी प्रभु राम भी उनका नाम नहीं जान पाएंगे. उनका नाम गुप्त ही रह जाएगा और भगवान उन्हें पुण्यलाभ से वंचित कर देंगे. वे यह भूल गए कि ईश्वर अगर सब कुछ देखता है तो उनका नाम भी जरूर देख लेता लेकिन यह तब होता जब मेयर सिर्फ श्री राम को अपनी आस्था दिखाना चाहते. पर शायद मेयर पूरे शहर को दिखाना चाहते थे कि वह श्री राम मंदिर के लिए दान कर रहे हैं. यही वजह है कि मेयर ने न सिर्फ सार्वजनिक मंच पर यह दान किया बल्कि उनकी इस तथाकथित आस्था का ढिंढोरा शहर के अखबारों में छपे समाचार भी पीटते नजर आए. कहा जा सकता है कि प्रभु राम ने डा. उमेश गौतम को इस लायक बनाया कि वह मेयर बन सकें तो वे राम के लिए सहज भाव से अपनी खेती कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे हों. लेकिन कुछ कृतज्ञता उनकी उस शहर, उस लोकतंत्र और संविधान के प्रति भी बनती है जो गंगा जमुनी तहजीब का प्रतीक है और वर्षों से जातीय व धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध खड़ा रहा है. मेयर सिर्फ शहर के राजनीतिक प्रमुख ही नहीं हैं बल्कि सभी अर्थों में शहर के प्रमुख भी होते हैं. उन्होंने संविधान की उस लिखित परंपरा और अलिखित भावना से भी छल किया है जो देश में सबको बराबरी के साथ जीने और रहने का अधिकार देती है और मानती है कि राज्य को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. मेयर के फैसले का यह सैद्धांतिक पक्ष है. व्यावहारिक पक्ष और भी ज्यादा खराब है. मेयर के 21 लाख रुपये चंदा देने से चंदा लेने वालों का उत्साह और अधिक बढ़ गया होगा. सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि मेयर से कुल एक करोड़ रुपये चंदा देने को कहा गया है. मेयर ने सार्वजनिक मंच से चंदा देकर खुद को धर्म और भेदभाव की राजनीति में जकड़ लिया है. उनके ऐसा करने से समाज में एक गलत संदेश गया है. अब वह एक धर्म विशेष के मेयर तक ही सीमित रह गए हैं. हालांकि जिस पार्टी का एजेंडा ही हिन्दुत्व रहा हो उसके मेयर से धर्म निरपेक्षता की उम्मीद करना बेमानी होगा लेकिन फिर भी सार्वजनिक तौर पर ऐसी परिस्थितियों से बचा जा सकता था. मंदिर निर्माण के लिए विधायक और सांसद भी चंदा दे रहे हैं लेकिन किसी ने सार्वजनिक मंच पर इस तरह का स्वांग नहीं रचा जिस तरह का मेयर ने रचा. केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार, शहर विधायक डा. अरुण कुमार, कैंट विधायक राजेश अग्रवाल, बिथरी चैनपुर विधायक पप्पू भरतौल सहित कई जनप्रतिनिधि समर्पण निधि के लिए प्रयासरत हैं लेकिन उनमें से किसी ने भी वह रास्ता नहीं अपनाया जो मेयर ने अपनाया. सियासी जानकारों का मानना है कि मेयर को अपने पद की गरिमा का ख्याल रखते हुए गुप्त दान का रास्ता अपनाना चाहिए था.
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