नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अनुसूचित जाति और जनजाति को दिए जा रहे आरक्षण में भी आरक्षण देने को मंजूरी दे दी। कोटे के भीतर यह कोटा सबसे ज्यादा पिछड़े एससी-एसटी को दिया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को राज्यों को एक तरह से आगाह करते हुए कहा कि वे आरक्षित श्रेणी में कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण कर सकते हैं, लेकिन यह पिछड़ेपन और नौकरियों में प्रतिनिधित्व के ‘‘मात्रात्मक एवं प्रदर्शन योग्य आंकड़ों” के आधार पर होना चाहिए, न कि ‘‘मर्जी” और ‘‘राजनीतिक लाभ” के आधार पर। प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने ये टिप्पणियां अपने 140 पन्ने के बहुमत के फैसले में कीं। इस फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्यों को कोटा के भीतर कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों (एससी) का उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है, क्योंकि वे सामाजिक रूप से विषम वर्ग हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि राज्यों द्वारा अनुसूचित जातियों के किए गए उप-वर्गीकरण को ‘‘संवैधानिकता के आधार पर चुनौती दिए जाने की स्थिति में न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।” शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘जहां कार्रवाई को चुनौती दी जाती है, वहां राज्य को अपनी कार्रवाई के आधार को उचित ठहराना होगा। उप-वर्गीकरण का आधार और जिस मॉडल का पालन किया गया है, उसे राज्य द्वारा एकत्र किए गए प्रयोगसिद्ध आंकड़ों के आधार पर उचित ठहराना होगा।” प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘दूसरे शब्दों में राज्य उप-वर्गीकरण की प्रक्रिया शुरू कर सकता है लेकिन उसे यह राज्य की सेवाओं में पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व के स्तर से संबंधित मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य आंकड़ों के आधार पर करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, यह केवल मर्जी या राजनीतिक लाभ के आधार पर नहीं किया जा सकता। राज्य का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है…।” उन्होंने संभावित तरीकों का सुझाव दिया जो राज्यों द्वारा उप-वर्गीकरण के लिए अपनाए जा सकते हैं। उप-वर्गीकरण की सीमाएं निर्धारित करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि उप-वर्गीकृत जातियों के लिए सीट आरक्षित करते समय राज्य दो मॉडल अपना सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘पहले मॉडल में, जो वर्ग सामाजिक रूप से अधिक पिछड़े हैं, उन्हें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर वरीयता दी जाती है। इस मॉडल के दो रूप हैं।” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘पहले स्वरूप में अनुसूचित जातियों की श्रेणी के लिए आरक्षित सभी सीटों पर कुछ जातियों को वरीयता दी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, उप-वर्गीकृत वर्ग को सेब का पहला टुकड़ा मिलेगा। दूसरे स्वरूप में उप-वर्गीकृत वर्ग को सीट के एक निश्चित प्रतिशत पर वरीयता मिलेगी। कोई भी खाली सीट अन्य श्रेणियों के लिए उपलब्ध होंगी।” उन्होंने कहा कि दूसरे मॉडल में सीट विशेष रूप से कुछ जातियों के लिए उपलब्ध होंगी। प्रधान न्यायधीश ने कहा, ‘‘विशिष्ट मॉडल वरीयता मॉडल से इस सीमा तक भिन्न है कि पूर्व में, जो सीटें नहीं भरी जाती हैं, उन्हें अगले वर्ष उसी जाति द्वारा भरा जाएगा। लेकिन बाद में, जो सीटें नहीं भरी जाती हैं, वे उसी वर्ग की अन्य जातियों के लिए उपलब्ध होंगी।” उन्होंने कहा कि राज्य के पास उप-वर्गीकरण के माध्यम से सीट आरक्षित करते समय दो स्वीकार्य मॉडलों में से किसी एक का पालन करने का अधिकार है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘दोनों मॉडल में से किसी एक को चुनने का राज्य का निर्णय कई बातों पर निर्भर करेगा, जैसे कि कुछ जातियों का अन्य जातियों की तुलना में पिछड़ापन कितना है और अनुसूचित जातियों (अनुसूचित जातियों की अधिक पिछड़ी जातियां और अन्य दोनों) से संबंधित कुल अर्हता प्राप्त उम्मीदवारों की संख्या क्या है।” उन्होंने कहा कि अगर उप-वर्गीकरण को चुनौती दी जाती है, तो राज्य को इसके निर्धारण के लिए औचित्य और तर्क प्रस्तुत करना होगा। शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘राज्य की कोई भी कार्रवाई स्पष्ट रूप से मनमानी नहीं हो सकती। यह उप-वर्गीकरण के मूल में मौजूद स्पष्ट भिन्नता पर आधारित होनी चाहिए। उप-वर्गीकरण का आधार प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्य से उचित संबंध होना चाहिए।”
वहीं, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के बीच भी मलाईदार तबके (क्रीमी लेयर) की पहचान करने और उन्हें आरक्षण का लाभ देने से इनकार करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए। न्यायमूर्ति गवई ने एक अलग लेकिन सहमति वाला फैसला लिखा, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने बहुमत के फैसले से कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है, ताकि अधिक वंचित जातियों के लोगों के उत्थान के लिए आरक्षित श्रेणी के भीतर कोटा प्रदान किया जा सके। प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है, ताकि उन जातियों को आरक्षण प्रदान किया जा सके जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिक पिछड़ी हैं। जिन छह न्यायाधीशों ने सहमति व्यक्त की कि राज्यों को उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है, उनमें से चार ने अपने अलग-अलग निर्णयों में लिखा कि मलाईदार तबके के लोगों को आरक्षण के लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति गवई ने 281 पृष्ठों का अलग लेकिन सहमति वाला फैसला लिखा और कहा कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह नागरिकों के पिछड़े वर्ग को तरजीह दे, जिनका सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। उन्होंने कहा, “राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में से भी मलाईदार तबके की पहचान करने के लिए एक नीति बनानी चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के लाभ से बाहर रखा जा सके। मेरे विचार से, केवल यही और एकमात्र यही संविधान के तहत निहित वास्तविक समानता को प्राप्त कर सकता है।” उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ने कहा कि अनुसूचित जाति के जिन बच्चों को आरक्षण का लाभ मिला है, उन्हें उन बच्चों के समान दर्जा नहीं दिया जा सकता जिन्हें इसका लाभ नहीं मिला है। न्यायमूर्ति विक्रमनाथ, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने भी न्यायमूर्ति गवई की राय से सहमति जताई। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि समानता का मौलिक अधिकार “औपचारिक समानता नहीं बल्कि तथ्यात्मक समानता” की गारंटी देता है, और यदि विभिन्न व्यक्तियों की स्थिति समान नहीं है, तो वर्गीकरण स्वीकार्य है।
