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मुस्लिम माहौल बनाते हैं, टिकट बनिया ले जाते हैं और सपाई हार जाते हैं, पढ़ें बरेली की सियासत की अनकही दास्तान

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नीरज सिसौदिया, बरेली
बरेली की सियासत में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी को चुनाव में लगातार हार का सामना करना पड़ रहा है। बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक और पिछड़ी आबादी होने के बावजूद साइकिल यहां नहीं दौड़ पा रही। इसकी असल वजह यह है कि पीडीए के नारे पर बरेली में अमल नहीं हो पा रहा है और सवर्ण हिन्दू यहां सपा के साथ आने के लिए तैयार नहीं हैं। पिछले कई चुनावों का गणित इसका जीवंत उदाहरण पेश कर रहा है। समाजवादी पार्टी ने बरेली महानगर की दोनों सीटों पर जब-जब बनिया या कायस्थ उम्मीदवार उतारा है, तब-तब उसे हार का मुंह ही देखना पड़ा है। आखिरी बार कैंट विधानसभा सीट पर एक मुस्लिम उम्मीदवार शहजिल इस्लाम को जीत मिली थी। उस वक्त परिसीमन नहीं हुआ था कैंट सीट के दायरे में बिथरी एवं भोजीपुरा विधानसभा क्षेत्र के भी कुछ इलाके आते थे।

शहजिल इस्लाम

परिसीमन के बाद से इस सीट पर सपा एक बार भी नहीं जीती और शहर सीट जीते हुए तो एक अरसा हो गया। शहर विधानसभा सीट से दो बार लगातार भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने वाले वन राज्य मंत्री अरुण कुमार लगभग 15 साल पहले सपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे लेकिन उस बार उनकी बिरादरी (कायस्थ) ने उन्हें नकार दिया था। मतलब साफ है कि कायस्थ वोट भाजपा से नहीं टूटने वाला चाहे आप उनकी बिरादरी के किसी दिग्गज को ही क्यों न उतार दें। यही वजह है कि विगत विधानसभा चुनाव में सपा का कोई भी कायस्थ नेता शहर विधानसभा सीट से लड़ने का इच्छुक नहीं था। सबकी नजर मुस्लिम बाहुल्य कैंट सीट पर थी।
हाल के लोकसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहां साइकिल रफ्तार नहीं पकड़ सकी। भाजपा का जो उम्मीदवार (छत्रपाल गंगवार) विधानसभा चुनाव तक नहीं जीत सका था उसने लोकसभा चुनाव में साइकिल पंक्चर कर दी। वो भी तब जबकि यह उम्मीदवार लोकसभा के चुनावी मैदान में पहली बार किस्मत आजमा रहा था। लगभग 40 साल तक बरेली की सियासत के फलक पर चमकने वाले सितारे पूर्व केंद्रीय मंत्री और दिग्गज भाजपा नेता संतोष गंगवार का टिकट काटकर छत्रपाल गंगवार को दिया गया था। संतोष गंगवार के समर्थकों की नाराजगी के बावजूद छत्रपाल गंगवार चुनाव जीत गए और पहली बार में ही लोकसभा पहुंच गए। इससे पहले विधानसभा चुनाव में भी बरेली महानगर की एक भी सीट समाजवादी पार्टी नहीं जीत पाई थी। लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव, दोनों ही चुनावों में समाजवादी पार्टी का प्रदेश में प्रदर्शन पिछले चुनावों के मुकाबले बेहतर रहा था। इसके बावजूद बरेली में उसे हार का सामना करना पड़ा। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर क्या वजह है कि बरेली में सपा की साइकिल चुनाव से ठीक पहले पंक्चर होने लगती है।
दरअसल, टिकट के गलत बंटवारे के चलते ऐसा होता है। जब-जब चुनाव आते हैं तब-तब समाजवादी पार्टी के पक्ष में माहौल मुस्लिम नेता बनाते हैं और ऐन वक्त पर टिकट किसी सवर्ण हिन्दू (बनिया या कायस्थ) नेता को थमा दिया जाता है। विगत विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था। इंजीनियर अनीस अहमद खां, डॉक्टर अनीस बेग, अब्दुल कय्यूम खां उर्फ मुन्ना, मोहम्मद कलीमुद्दीन जैसे तमाम मुस्लिम नेता पार्टी के पक्ष में माहौल बनाते रहे लेकिन जब टिकट बंटवारे की बारी आई तो शहर विधानसभा सीट से राजेश अग्रवाल को उम्मीदवार बना दिया गया जो खुद कैंट विधानसभा क्षेत्र में रहते हैं और शहर सीट से तब तक उनका कोई विशेष वास्ता भी नहीं था।

डा. अनीस बेग

राजेश अग्रवाल खुद भी कैंट विधानसभा सीट से टिकट चाहते थे और अगर उन्हें कैंट से टिकट दिया जाता तो नतीजा शायद कुछ और हो सकता था। बहरहाल, राजेश अग्रवाल लगभग 18000 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए।

अखिलेश यादव के साथ राजेश अग्रवाल

इसी तरह कैंट विधानसभा सीट से इम्पोर्टेड उम्मीदवार सुप्रिया ऐरन को उतार दिया गया। ये वही सुप्रिया ऐरन थीं जो 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर कैंट विधानसभा सीट से मैदान में उतरी थीं और चौथे नंबर पर रही थीं। उस चुनाव में सुप्रिया बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे इंजीनियर अनीस अहमद खां से भी कम वोट लाई थीं।

सुप्रिया ऐरन

इंजीनियर अनीस अहमद खां पिछले विधानसभा चुनाव से पहले अपने समर्थकों के साथ सपा में शामिल हो गए थे और कैंट सीट से टिकट की चाह में उन्होंने लगभग पांच साल तक जी-जान से तैयारी की थी। ऐन वक्त पर सुप्रिया ऐरन कांग्रेस छोड़कर सपा में आ गईं और समाजवादी पार्टी को यह सीट भी गंवानी पड़ी जबकि इस सीट पर सपा के पास बेहतर मौका था क्योंकि यहां से लगातार जीतते आ रहे राजेश अग्रवाल का टिकट भाजपा ने काट दिया था। उनकी जगह भाजपा ने संजीव अग्रवाल को मैदान में उतारा था।

इंजीनियर अनीस अहमद खां

इससे पहले 2017 के चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन के चलते सपा ने दोनों सीटों पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था। कांग्रेस ने शहर सीट से वैश्य समाज से ताल्लुक रखने वाले प्रेम प्रकाश अग्रवाल को मैदान में उतारा लेकिन प्रेम प्रकाश अग्रवाल को भी हार ही मिली।

प्रेम प्रकाश अग्रवाल

सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, बसपा को भी वैश्य उम्मीदवार रास नहीं आया। भाजपा के दिग्गज व्यापारी नेता राजेंद्र गुप्ता ने जब भाजपा से बगावत कर बसपा के टिकट पर कैंट विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा तो राजेंद्र गुप्ता को भी करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी। बाद में राजेंद्र गुप्ता वापस भाजपा में लौट गए और तब से वह भाजपा के ही वफादार बने हुए हैं।

राजेंद्र गुप्ता

अब बात करते हैं 2024 के लोकसभा चुनाव की। तो इस बार भी माहौल मुस्लिम नेता बनाते रहे और टिकट वैश्य समाज के प्रवीण सिंह ऐरन ले उड़े। नतीजा यह हुआ कि प्रदेश में परचम लहराने वाली समाजवादी पार्टी बरेली में चारों खाने चित हो गई।

प्रवीण सिंह ऐरन

अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव के लिए मुस्लिम नेताओं ने माहौल बनाना शुरू कर दिया है। अगर इस बार भी बरेली को लेकर अखिलेश यादव का बनिया प्रेम बरकरार रहा तो इस बार भी नतीजे पहले से अलग नहीं होंगे। अखिलेश यादव को अब यह समझना होगा कि बरेली के सवर्णों से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) का जो नारा सपा अध्यक्ष ने दिया है, बरेली महानगर की दोनों सीटों पर भी सपा को उसी नारे पर अमल करना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि जब एक ही रणनीति बार-बार विफलता दिलाती है तो सफलता हासिल करने के लिए रणनीति बदलनी पड़ती है।

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