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भाजपा की लुटिया डुबोएगा मेयर और विधायक का शीत युद्ध, बरेली महानगर में गुटों में बंट गई भाजपा, पढ़ें गुटबाजी की पूरी दास्तान

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नीरज सिसौदिया, बरेली
बरेली महानगर भारतीय जनता पार्टी का गढ़ रहा है लेकिन भाजपा का यह किला अब जर्जर होता नजर आ रहा है। इसकी वजह दो दिग्गज नेताओं के बीच चल रहा शीत युद्ध है। इनमें एक मेयर है तो दूसरा विधायक। मेयर और विधायक के इस शीत युद्ध में पूरी महानगर भाजपा गुटों में बंट गई है।
इस कहानी की शुरुआत होती है वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव से। उस वक्त भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री राजेश अग्रवाल का विधानसभा टिकट कटने की चर्चा जोरों पर थी। राजेश अग्रवाल की विरासत के वैसे तो कई दावेदार थे लेकिन प्रमुख दावेदारों में भाजपा के प्रदेश कोषाध्यक्ष संजीव अग्रवाल और मेयर उमेश गौतम शामिल थे। दावेदारी की इस जंग में संजीव अग्रवाल भारी पड़ गए। वो न सिर्फ विधानसभा का टिकट ले आए बल्कि लाख अड़चनों के बावजूद पहली ही बार में विधानसभा पहुंच भी गए। ये वो दौर था जब बरेली के सबसे बड़े दिग्गज संतोष गंगवार चुनावी राजनीति से दूर होते जा रहे थे। ऐसे में बरेली का अगला संतोष गंगवार कौन होगा, इसकी जंग भी शुरू हो चुकी थी। राजेश अग्रवाल और संतोष गंगवार के बाद बरेली की सियासत में जो स्पेस बनने जा रहा था उसी स्पेस की भरपाई मेयर उमेश गौतम और विधायक संजीव अग्रवाल करना चाहते हैं। लेकिन कोई भी यह नहीं चाहता कि जिस तरह राजेश अग्रवाल और संतोष गंगवार बरेली की सियासत में दो अलग-अलग ध्रुव बने रहे उसी तरह संजीव अग्रवाल और उमेश गौतम भी दो अलग-अलग ध्रुव बनें। दोनों ही नेता अपना वर्चस्व चाहते हैं।
सूत्र बताते हैं कि विधायक संजीव अग्रवाल इस मामले में भारी पड़ रहे हैं। उनकी साफ-सुथरी और भ्रष्टाचार मुक्त नेता की छवि मेयर उमेश गौतम से जुड़े विवादों पर भारी पड़ रही है। मेयर उमेश गौतम पर गाहे-बगाहे भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगते रहते हैं। हालांकि उन पर कोई आरोप अभी तक आधिकारिक तौर पर साबित नहीं हो पाया है। लेकिन सवाल इतने खड़े हो चुके हैं कि जवाब देना बहुत मुश्किल है।
सूत्र यह भी बताते हैं कि जब संजीव अग्रवाल विधानसभा का टिकट लेकर आए थे तो उमेश गौतम के समर्थकों ने संजीव अग्रवाल को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया था लेकिन उन्हें कामयाबी बिल्कुल भी नहीं मिल सकी। हां, जीत का मार्जिन कुछ कम जरूर हो गया। सूत्र यह भी बताते हैं कि विधानसभा चुनाव में मेयर समर्थकों का अंदरखाने विरोध संजीव अग्रवाल को बिल्कुल रास नहीं आया। जब मेयर चुनाव आए तो उन्होंने पहले तो पूरा जोर लगाया कि उमेश गौतम को इस बार टिकट न मिले लेकिन जब उमेश गौतम टिकट ले आए तो संजीव अग्रवाल के समर्थकों ने भी उमेश गौतम के साथ वही किया जो मेयर के समर्थकों ने विधानसभा चुनाव में संजीव अग्रवाल के साथ किया था। लेकिन उमेश गौतम इस बार रिकॉर्ड मतों से जीत गए।
इसके बाद वर्चस्व की असली जंग शुरू हुई। वही जंग जो दशकों से राजेश अग्रवाल और संतोष गंगवार के बीच चली आ रही थी। पहले भी दो दिग्गज भाजपाई एक-दूजे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे और आज भी लगभग वैसा ही हो रहा है। हालांकि, पहले राजनीति का स्तर इतना नीचे नहीं आया था जितना अब देखने को मिल रहा है।
सूत्र यह भी बताते हैं कि नगर निगम चुनाव में मेयर अपना टिकट बचाने में तो कामयाब हो गए लेकिन विधायक के साथ शीत युद्ध की कीमत उनके करीबी पार्षदों और नेताओं को चुकानी पड़ी। मेयर अपने करीबी कई नेताओं को पार्षद का टिकट नहीं दिलवा सके। अजय चौहान और मुकेश मेहरोत्रा जैसे सिटिंग पार्षदों का भी टिकट काट दिया गया।
सूत्र बताते हैं कि मेयर ने कैंट विधानसभा क्षेत्र के पार्षदों को स्पष्ट रूप से यह संदेश दे दिया है कि जो संजीव अग्रवाल के पास जाएगा उसे मेयर के पास आने की कोई आवश्यकता नहीं है। इशारा साफ है कि अगर पार्षद संजीव अग्रवाल से कोई संपर्क रखते हैं तो बतौर मेयर उमेश गौतम का कोपभाजन उन्हें बनना पड़ेगा। ऐसे में मुश्किल आगामी विधानसभा चुनाव में होने वाली है। उमेश गौतम ब्राह्मण हैं और कैंट सीट वैश्य समाज की पारंपरिक सीट है। सूत्रों की मानें तो मेयर एक बार फिर इस कोशिश में जुटे हैं कि संजीव अग्रवाल को टिकट न मिले। अव्वल तो ऐसा मुमकिन नहीं लगता लेकिन अगर संजीव अग्रवाल का टिकट कटता भी है तो भी ब्राह्मण होने के कारण उमेश गौतम को बिल्कुल भी नहीं मिलने वाला। मेयर भले ही विरोधी दल से टिकट ले आएं लेकिन भाजपा से कैंट से विधायक बनने का उनका सपना फिलहाल पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा।
एक तरफ प्रदेश में मुख्यमंत्री के खिलाफ शीर्ष नेताओं की गुटबाजी की चर्चाओं का बाजार गर्म है तो दूसरी तरफ बरेली में मेयर और विधायक के शीत युद्ध से सियासत गरमाई हुई है। इन नेताओं को लोकसभा चुनाव में पार्टी की प्रदेश में हुई हार से सबक लेना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रदेश में भाजपा के खिलाफ पहले से ही एंटी इनकंबेंसी का माहौल है। जिसे भुनाने में समाजवादी पार्टी लगी हुई है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर गुटबाजी आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। दोनों नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि अगर पार्टी सत्ता में रहेगी तो ही उनका रसूख कायम रहेगा वरना सब शून्य हो जाएगा।

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