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दीपावली की रोशनी में चमकती सियासत: बरेली शहर सीट पर चेहरों की जंग, नए चिरागों से रोशनी की आस

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नीरज सिसौदिया, बरेली
बरेली की राजनीति इन दिनों दीपावली की तरह ही रोशनी और धमाकों से भरी हुई है। हर नेता अपने-अपने “दीप” जलाने में जुटा है ताकि राजनीतिक अंधेरे से निकलकर सत्ता की रोशनी तक पहुंच सके। शहर विधानसभा सीट जिसे कायस्थ समुदाय का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है, इस बार कई मायनों में दिलचस्प मोड़ लेने जा रही है। भाजपा और सपा, दोनों ही दलों में नए चेहरों को मौका देने की चर्चा जोरों पर है। वहीं कांग्रेस की रणनीति गठबंधन के ऐलान पर टिकी है। इस वजह से बरेली की सियासत इस दीपावली पर उम्मीदों, अनिश्चितताओं और महत्वाकांक्षाओं की मिलीजुली चमक से सराबोर है।

भाजपा में अंदरूनी उठापटक, अरुण सक्सेना की कुर्सी पर खतरा
मौजूदा विधायक और मंत्री अरुण कुमार सक्सेना पिछले कई महीनों से अपने टिकट को सुरक्षित करने के लिए पूरी ताकत झोंके हुए हैं। सरकारी कार्यक्रमों से लेकर जनसंपर्क तक, उन्होंने हर मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। लेकिन पार्टी के भीतर ही यह चर्चा तेज है कि केंद्रीय नेतृत्व इस बार “जनता में थके” हुए चेहरों को रिटायर करने की नीति पर काम कर रहा है। अरुण सक्सेना के विरोधी गुट को इसी नीति से उम्मीद है कि उन्हें टिकट से वंचित किया जा सकता है।

शहर विधायक अरुण कुमार

हालांकि उनके समर्थक यह तर्क दे रहे हैं कि अरुण सक्सेना का प्रशासनिक अनुभव और संगठन के प्रति निष्ठा भाजपा के लिए एक बड़ा संपत्ति है। बावजूद इसके, पार्टी के रणनीतिकार यह भी जानते हैं कि बरेली शहर में युवाओं और व्यापारी वर्ग का एक बड़ा तबका अब नए नेतृत्व की तलाश में है।

अतुल कपूर: ‘हिंदुत्व की राह’ पर उभरता युवा चेहरा
भाजपा में जिस नाम की सबसे ज्यादा चर्चा है, वह है अतुल कपूर। पूर्व उपसभापति और युवा नेता अतुल कपूर पिछले विधानसभा चुनाव से ही अपने जनाधार को मजबूत करने में जुटे हैं। उन्होंने “हिंदुत्व” को अपनी राजनीतिक पहचान बना लिया है। कभी भागवत कथा तो कभी धार्मिक शोभायात्रा, हर आयोजन में उनकी सक्रियता साफ दिखाई देती है।
हाल ही में उन्होंने शहर के सबसे बड़े सांस्कृतिक प्रतीक दशहरा मेले को दोबारा जीवित कर दिया। यह मेला बरेली के स्पोर्ट्स स्टेडियम में आजादी के समय से लगता आया था, लेकिन कोरोना काल में बंद हो गया था। अतुल कपूर ने विष्णु इंटर कॉलेज में इसका पुनः आयोजन कराकर न सिर्फ सांस्कृतिक परंपरा को पुनर्जीवित किया, बल्कि खत्री-पंजाबी समाज के बीच अपनी स्वीकार्यता को भी मजबूत किया। मेला प्रभारी के रूप में उनकी भूमिका ने उन्हें “जमीनी नेता” के रूप में स्थापित किया है।

अतुल कपूर

खत्री समाज के प्रमुख चेहरे के तौर पर वे भाजपा के पुराने नेतृत्व की जगह लेने की क्षमता रखते हैं। पार्टी की अंदरूनी राजनीति में उनकी यह सक्रियता अरुण सक्सेना के लिए खतरे की घंटी मानी जा रही है।

कायस्थ समाज की दावेदारी: राहुल जौहरी बनाम मम्मा
बरेली शहर सीट की सामाजिक बनावट को देखें तो कायस्थ समाज का निर्णायक प्रभाव रहा है। इस समुदाय से ही भाजपा और सपा दोनों में कई चेहरे अपनी किस्मत आजमाने की तैयारी में हैं।
पूर्व मंत्री दिनेश जौहरी के पुत्र राहुल जौहरी भाजपा में टिकट के दावेदारों में शामिल हैं। हालांकि राहुल जौहरी की छवि “वीवीआईपी नेता” की है — जनता से उनकी दूरी, संगठनात्मक कार्यों में सीमित उपस्थिति और प्रशासनिक रुझान ने उन्हें “नेता से ज़्यादा नाम” बना दिया है।

राहुल जौहरी

इसके विपरीत, नगर निगम कार्यकारिणी सदस्य सतीश चंद्र सक्सेना “कातिब उर्फ मम्मा” एक जमीनी नेता हैं। हर सुख-दुख में जनता के साथ खड़े रहना, धार्मिक आयोजनों में सक्रिय रहना और मेयर से लेकर पूर्व सांसद संतोष गंगवार तक के साथ दिखना — यह सब उन्हें जनता का “अपना आदमी” साबित करता है।

सतीश चंद्र सक्सेना कातिब उर्फ मम्मा

मम्मा का फायदा यह है कि वे पुराने कार्यकर्ताओं के नेटवर्क में भरोसेमंद माने जाते हैं। भाजपा में यदि केंद्रीय नेतृत्व “जमीनी चेहरा” तलाश रहा है, तो मम्मा का नाम शीर्ष सूची में आ सकता है।

सपा में वैश्य और मुस्लिम नेताओं की टक्कर
विपक्षी खेमे की बात करें तो समाजवादी पार्टी में दो प्रमुख धाराएं उभर रही हैं- एक व्यापारी वर्ग की, दूसरी अल्पसंख्यक समाज की। वैश्य वर्ग से पूर्व मेयर सुप्रिया ऐरन एक बार फिर सक्रिय हुई हैं।

सुप्रिया ऐरन, पूर्व मेयर

वे पहले भी विधानसभा चुनाव लड़ चुकी हैं। हालांकि वह शहर या कैंट सीट से चुनाव नहीं लड़ना चाहतीं पर उनके नाम की चर्चा जरूर हो रही है।

प्रेम प्रकाश अग्रवाल

कांग्रेस के प्रेमप्रकाश अग्रवाल भी एक अनुभवी नाम हैं। हालांकि वे एक बार हार चुके हैं, लेकिन संगठन में उनकी पकड़ और वर्गीय समर्थन अभी भी कायम है।

हसीव खान: एकता का चेहरा
सपा के शहर विधानसभा अध्यक्ष हसीव खान इस समय बरेली की सियासत में “कम बोलने, ज्यादा करने वाले” नेता के रूप में देखे जा रहे हैं। समाजसेवा और जनता से जुड़ाव ने उन्हें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों वर्गों में पहचान दिलाई है।

हसीव खान

दीपावली और होली जैसे त्योहारों पर वे गरीबों की मदद कर “साझा संस्कृति” की मिसाल पेश करते रहे हैं। इस दीपावली पर भी वे जरूरतमंदों की झोपड़ियों में रोशनी फैलाने की तैयारी कर रहे हैं। सपा के स्थानीय कार्यकर्ता मानते हैं कि हसीव खान का “समावेशी चेहरा” शहर की विविध आबादी को जोड़ने में अहम भूमिका निभा सकता है।

मोहम्मद कलीमुद्दीन: अल्पसंख्यक और दलित गठजोड़ का प्रयोग
सपा के प्रदेश सचिव मोहम्मद कलीमुद्दीन भी मैदान में हैं। उनका फॉर्मूला “पीडीए” यानी पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक एकता पर आधारित है।कलीमुद्दीन ने दलित बस्तियों में लगातार जनसंपर्क बढ़ाया है और सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से खुद को एक वैकल्पिक चेहरा साबित करने की कोशिश की है।

मो. कलीमुद्दीन

दीपावली के अवसर पर वे भी गरीब परिवारों के बीच पहुंच रहे हैं और सामुदायिक कार्यक्रमों के जरिए अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं।

कांग्रेस का इंतजार: गठबंधन बने तो नई गणित
कांग्रेस के प्रेमप्रकाश अग्रवाल का नाम शहर सीट से लगातार चर्चा में रहा है, लेकिन पार्टी की स्थिति यहां कमजोर है। यदि सपा-कांग्रेस गठबंधन औपचारिक रूप से तय होता है, तो यह सीट कांग्रेस को मिल सकती है।
कांग्रेस की स्थानीय इकाई भी चाहती है कि गठबंधन हो, ताकि संगठन के पुराने चेहरों को फिर से उभरने का मौका मिले।

दीपावली में राजनीति की चमक
दीपावली सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि बरेली की सियासत के लिए “पॉलिटिकल लॉन्चिंग पैड” बन चुकी है। अरुण सक्सेना जहां सरकारी आयोजनों में अपनी मौजूदगी दिखाकर टिकट की रेस में बने रहना चाहते हैं, वहीं अतुल कपूर और सतीश कातिब मम्मा धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों से अपनी “जनप्रियता” को साबित कर रहे हैं। सपा के नेता हसीव खान और कलीमुद्दीन गरीबों की झोपड़ियों में दीये जलाकर “जनता के दिलों में रोशनी” करने की कोशिश कर रहे हैं।
बहरहाल, बरेली शहर विधानसभा सीट की सियासत इस बार पूरी तरह से चेहरों की लड़ाई बन चुकी है। यहां जातिगत समीकरण से ज्यादा महत्व “जनसंपर्क और विश्वसनीयता” को मिल रहा है। भाजपा के भीतर अरुण सक्सेना की राह आसान नहीं, जबकि अतुल कपूर और मम्मा जैसे चेहरे नए युग की राजनीति के प्रतीक बन रहे हैं। वहीं सपा में हसीव खान और कलीमुद्दीन मुस्लिम मतदाताओं के बीच पैठ मजबूत कर रहे हैं, जबकि प्रेमप्रकाश अग्रवाल वैश्य समुदाय के भरोसे मैदान में हैं।
दीपावली की रात जैसे हर घर में कोई न कोई दीप जलता है, वैसे ही बरेली शहर की राजनीति में भी हर चेहरा अपनी-अपनी लौ जलाने की कोशिश में है। सवाल सिर्फ इतना है कि इस रोशनी में कौन चमकेगा और किसका दीप पहले बुझ जाएगा?

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