सुनीता सिंह
सेनेटरी पैड पर आधारित अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन को बॉक्स ऑफिस पर अपार सफलता मिली है। निश्चित तौर पर आज बदलाव का दौर है और अक्षय कुमार की यह फिल्म भी बदलाव का संदेश दे रही है। फिल्म की कहानी वास्तविक जीवन से ताल्लुक रखती है। पूरी फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है। तिस पर सबसे बड़ी बात यह है कि समाज के लिए इसमें एक बड़ा और कड़ा संदेश छुपा है। महिलाओं को लेकर लोगों का नजरिया धीरे-धीरे बदल रहा है, इसका उदाहरण समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के रूप में देखा जा सकता है। प्रकृति ने स्त्री को जिन खूबियों के साथ गढ़ा है उनमें से ही एक है पीरियड। जहां स्त्री है वहां प्रजनन है तो पीरियड भी है। स्त्री के बाकी सब से समाज को स्वीकार्य हैं लेकिन पीरियड नहीं। इसलिए महीने के वह 5 दिन में कैसे रहती है उसे क्या होता है इससे किसी काे कोई सरोकार नहीं होता।
भारतीय ग्रामीण समाज में स्थिति और भी बदतर है। अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन के जरिए इन्हीं दकियानूसी विचारों पर चोट की गई है। ग्रामीण इलाकों में महिलाएं खेतों में काम करती हैं सिर पर पानी या सामान लादकर घंटों चलती है तो शहरों में रोज की भागदौड़ की जद्दोजहद के साथ साथ काम के दूसरे दबाव भी साथ चलते हैं। ऐसे में उसके कपड़े पर लगा एक छोटा सा लाल दाग बहुत बड़ा सवाल बन जाता है। कुछ समय पहले हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार हमारे देश में आज भी सिर्फ 29 फ़ीसदी महिलाएं ऐसी हैं जो पीरियड के दौरान पेट का इस्तेमाल करती हैं। इस फिल्म में यही सच्चाई दर्शाई गई है। लोगों को जागरुक करने का एक सराहनीय प्रयास अक्षय कुमार की इस फिल्म में देखा गया। पीरियड के दौरान होने वाले इंफेक्शन से एसटीडी से लेकर सर्वाइकल कैंसर तक की बीमारियां हो सकती हैं। कई बार गर्भाशय को भी नुकसान पहुंचता है मगर हम इस बात को गंभीरता से नहीं लेते। आज भी कई घर परिवार ऐसे हैं जहां इन दिनों में औरतें सबसे छुपकर शर्म से गिरती हुई अपने कपड़े घर के सबसे अंधेरे कोने में सुख आती हैं। इन दोनों में आखिरकार उजाला कैसे आएगा। इसका एक ही उपाय है और वह यह कि हमें इसे स्वीकार करना होगा। हमें खुलकर इस मसले पर बात करनी होगी। कुछ ऐसा ही किया था 1998 में तमिलनाडु के एक गरीब कामगार के बेटे अरुणाचलम मुरुगनाथम ने। दक्षिण भारत में एक प्रथा है कि लड़कियों के पहली बार रजस्वला होने पर रितु कला संस्कार किया जाता है। पूरा परिवार इस संस्कार को कुछ उसी तरह से मनाता है जिस तरह से लड़कों का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। यही वजह है कि दक्षिण भारत में पीरियड अछूता शब्द नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि वहां स्त्रियों से अछूत जैसा व्यवहार नहीं होता। दक्षिण में भी इस दौरान लड़कियों को कई बुनियादी जरूरतों से वंचित रखा जाता है। हालांकि वक्त के साथ परंपराएं बदल रही हैं और नई पीढ़ी इस प्रथा को मानने को तैयार नहीं। यह बदलाव सिर्फ दक्षिण में ही नहीं बल्कि पूरे देश में आ सकता है लेकिन इसके लिए जरूरत है पुरुषवादी मानसिकता को बदलने की। हमारा समाज अभी इतना पिछड़ा हुआ है कि हम पर शक की बात नहीं करना चाहते तो फिर इसके आगे के सुविधाजनक विकल्प टैंपोन और मेंस्ट्रुअल कप की बातें कौन करेगा? इसलिए जरूरी है कि हम पेट से शुरू करें तभी टैंपोन और मेंस्ट्रुअल कप जैसी चीजों को भी प्रयोग में लाया जा सकेगा जो पर्यावरण की दृष्टि से दुनिया भर में इस्तेमाल किए जा रहे हैं।