नीरज सिसौदिया
वादे हवा हो गए और उम्मीदें परवान नहीं चढ़ सकीं। लोकसभा के उपचुनाव ने भगवा ब्रिगेड को आइना दिखा दिया है। उपचुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि सिर्फ जुमलों के हथियारों से हर बार सियासी जंग नहीं जीती जा सकती। हिंदू मुस्लिम के नाम पर अब जनता नहीं बंटने वाली। जनता हमेशा विकल्प तलाशती है। 2014 में कांग्रेस का विकल्प भगवा ब्रिगेड के रूप में नजर आया तो जनता ने उसे सिर आंखों पर बिठाया। लेकिन जनता के मान का जब सम्मान न हो सका तो एक बार फिर जनता विकल्प तलाशने लगी।
दरअसल, उपचुनाव में अति उत्साह और ओवरकॉन्फिडेंस भाजपा को ले डूबा। सबसे ज्यादा फजीहत तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ में हुई। यहां भाजपा के 29 वर्षों के राज को सपा और बसपा के गठबंधन ने उखाड़ फेंका। असल मायने में यह सपा और बसपा की जीत नहीं बल्कि भाजपा की हार है। लोगों ने सपा और बसपा को नहीं जिताया बल्कि भाजपा को हराया है।
उपचुनाव में भी कुछ वैसा ही हुआ जैसा कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था। उस वक्त महागठबंधन के रूप में जनता ने भाजपा का विकल्प देखा था। मतलब साफ है कि मोदी सरकार का जादू उसी वक्त से कुछ कम पड़ने लगा था।
हाल ही में हुए 3 राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा और उसके समर्थक दलों की जो जीत हुई है उसे भी असल मायने में भाजपा की जीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि त्रिपुरा को छोड़ दें तो अन्य राज्यों में भगवा ब्रिगेड की कोई अहम भूमिका नहीं नजर आती। कहीं उसे महज 2 सीटें मिली हैं तो कहीं पर वह अपना अस्तित्व ही बचा पाई है। जिन राज्यों में वह सत्ता में आई हुई है वहां भी गठबंधन के सहयोगी दल को भाजपा से ज्यादा सीटें प्राप्त हुई हैं।
हाल ही में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने विभिन्न विपक्षी दलों से यह अपील की थी कि वह कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के रूप में तीसरा मोर्चा तैयार करें। नायडू का संकेत महागठबंधन की ओर था लेकिन इसमें कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं थी।
वर्तमान में लोकसभा उपचुनाव में बिहार और यूपी की विभिन्न सीटों पर हुई भाजपा की हार ने तीसरे मोर्चे की परिकल्पना को और भी मजबूत कर दिया है। आजादी से लेकर आज तक हिंदुस्तान की सट्टा पर सिर्फ कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व वाली सरकारी ही काबिज रही हैं। लेकिन अब लगने लगा है कि तीसरा मोर्चा इतिहास रचने का दम रखता है बशर्ते कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर सारे दल एकजुट हो जाएं।
जरा सोचिए अगर पश्चिम बंगाल में वाम दल और तृणमूल कांग्रेस एक हो जाएं, बिहार में राजद और जदयू फिर से एक हो जाएं, तमिलनाडु में एआईडीएमके और डीएमके एक हो जाएं, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तेलुगू देशम पार्टी और विपक्षी एक हो जाएं, जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी एक हो जाएं, यूपी में सपा और बसपा एक हो जाएं, पंजाब में अकाली दल और आम आदमी पार्टी एक हो जाएं और इसी तरह नॉर्थ ईस्ट में भी गैर कांग्रेस भाजपा दल एक हो जाएं तो हिंदुस्तान की सत्ता पर तीसरा मोर्चा काबिज हो सकता है। अगर ऐसा हो जाए तो निश्चित तौर पर भगवा राज्य का अंत तो हो जाएगा लेकिन क्या देश हित में यह उचित होगा? क्या खिचड़ी सरकारी इस देश को चला पाएंगी? क्या तब विभिन्न सियासी दलों में हितों का टकराव नहीं होगा? निश्चित तौर पर हिंदुस्तान की सियासत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब संभल जाना चाहिए। यह न सिर्फ भगवा ब्रिगेड के लिए बल्कि राष्ट्रहित के लिए भी जरूरी है। इस एक साल में भी अगर मोदी सरकार जनता के दिलों को नहीं जीत सकी तो भविष्य और भी भयावह होगा। लोकसभा उपचुनाव के नतीजों ने भगवा राज के अंत की शुरुआत के संकेत दे दिए हैं। विपक्षी दलों के हौसले बुलंद हैं। अगर तीसरा मोर्चा गठित होता है तो निश्चित तौर पर वह केंद्र की सत्ता पर भी काबिज हो सकता है लेकिन अगर ऐसा हुआ तो वह भगवा ब्रिगेड और हिंदुस्तान दोनों के भविष्य के लिए खतरनाक होगा।
