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ऐसे थे श्री कृष्ण, जानिये नंदलाल का इतिहास

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सुखदेव ‘राही’
प्राचीन भारत के इतिहास में अगर प्रथम वैदिक इंद्र के बाद कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके शौर्य, बाहुबल, सूझबूझ तथा राजनैतिक-सैन्य अभियानों की सफलता तत्कालीन विश्व में अभूतपूर्व थी तो वो व्यक्ति एक ही इन्सान है
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“वासुदेव कृष्ण”
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लगभग 3500 वर्ष पहले…
मनु पुत्रों (मानवों) पर दशकों तक नियंत्रण के पश्चात अदिति पुत्रों (आदित्यों) का प्रभुत्व धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा है।
मानव अब खुद शक्तिशाली थे। मानव राजाओं के पास कई-कई लाख की सेनाएं थी। वे अब पूर्व की भांति यज्ञकर्म में रुचि दिखाते हुए आदित्यों का सम्मान करना बंद कर रहे थे। वर्ण व्यवस्था का लोप हो रहा था। इस कथित “अधर्म” के कारण देव जाति व्यथित थी। शक्ति-संतुलन और आदित्यों का वर्चस्व पुनर्स्थापित करने के लिए एक भीषण युद्ध समय की पुकार थी।


पर देवजाति स्वयं पतन की ओर उन्मुख थी। तत्कालीन इंद्र अपने पूर्वज इन्द्रों की शौर्य परंपरा के वहन में असफल साबित हो रहे थे। देवताओं के रक्षक विष्णु के वंशज अपना अलग नगर “वैकुंठ” बसाकर देवताओं का रक्षण बन्द कर चुके थे।
रुद्रों का वंश भी इस समय पूरी तरह देवताओं के विरोधी और सौतेले भाइयों “दैत्यों और दानवों” का पक्षधर हो चुका था। देवताओं को इस समय तलाश थी किसी साधन की जिसके कंधे पर बंदूक रखकर युद्ध के द्वारा शक्तिसंतुलन के अपने मंसूबों को परवान चढ़ाया जा सके और देवताओं की तलाश जल्द ही पूरी हुई।
भादप्रद माह के कृष्ण पक्ष में यदुकुल वंशी “वसुदेव” के यहाँ “कृष्ण” का जन्म हुआ।
कृष्ण से पूर्व की संतानों को उनका मामा कंस किसी ज्योतिषी की सनक के कारण मरवा चुका था। वसुदेव अपने मित्र नन्द और महल के अपने वफादार नौकरों की सहायता से कृष्ण तथा दूसरी पत्नी से उत्पन्न कृष्ण के सौतेले भाई बलराम को गोकुल भिजवाने में कामयाब रहे थे, जहाँ कृष्ण बलराम के साथ बड़े होने लगे.

कृष्ण नामक उस बालक में कुछ तो खास था जो उन्हें अपने हमउम्र बालकों से अलग बनाता था। कृष्ण बचपन मे लात मारकर बैलगाड़ी पलट देते थे तो कभी हंसी-हंसी में अदम्य बाहुबल का प्रदर्शन कर पेड़ उखाड़ लेते थे। किसी प्राकृतिक घटना के कारण आयी बाढ़ में जब समस्त ब्रज जीवन की आस छोड़ चुका था तो कृष्ण चमत्कारिक पुरुषार्थ करके गोवर्धन पर्वत में गुफाएं बनाकर (अथवा पहले से मौजूद गुफाओं को खोजकर) और ब्रजवासियों को शरण देकर उनकी जीवन रक्षा करते हैं। एक हाथ मारकर मस्तक खील-खील कर देने की मार्शल आर्ट जैसी विद्या का प्रयोग भी सर्वप्रथम कृष्ण द्वारा ही मिलता है।

कृष्ण की इन लीलाओं पर इंद्र अपनी नजर बनाए हुए थे। इंद्र समझ गए थे कि यही वो व्यक्ति है जो युद्ध द्वारा शक्तिसंतुलन से आदित्यों का वर्चस्व दोबारा स्थापित करने के उनके मंसूबों में सहायक हो सकता है और कृष्ण का गायों के प्रति विशेष अनुराग देखते हुए, कृष्ण को इंद्र “गौ अधिपति” घोषित करके दोस्ती की शुरुआत भी कर देते हैं तथा महाभारत के युद्ध मे भी यथासम्भव कृष्ण पक्ष की भरपूर सहायता करते हैं।
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कंस के बुलावे पर मथुरा गए कृष्ण कुछ ही क्षणों में विश्वप्रसिद्ध पहलवानों “चाणूर और मुष्टिक” का वध करके जनता का दिल जीत लेते हैं और अपने माता-पिता को बंदी बना कर रखने वाले कंस के बाल पकड़ कर घसीट-घसीट कर कंस के प्राण हर लेते हैं। कृष्ण की सफलता और नायकत्व की यात्रा का यह प्रथम सफल अध्याय था।
अंतिम वर्षों को छोड़कर कृष्ण कभी भी द्वारिका में 6 माह से अधिक नही रहे। इस दौरान कृष्ण ने अनेक सैन्य अभियानों का संचालन किया पर कभी स्वयं राज्य की लालसा नही की। जरासंध का वध करने के बाद उनके पुत्र सहदेव को गद्दी पर बैठाया तो महाभारत के पश्चात युधिष्ठिर को आर्यावर्त का राज्य सौंप दिया।
इंद्र के अनुरोध पर अगवा की गई देव-ऋषि कन्याओं को छुड़ाने के लिए कृष्ण नरकासुर को युद्ध मे परास्त करते हैं तो नरकासुर के हरम से छुड़ाई गई 16000 से अधिक महिलाओं और बच्चोँ को समाज द्वारा तिरस्कृत देखने पर खुद को उन महिलाओं का पति घोषित कर उन नाजायज बच्चों को पिता का नाम प्रदान करते हैं।
कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की प्रेयसी उषा के पिता बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध को बंदी बना लेने के कारण कृष्ण अकेले ही रुद्रों द्वारा संरक्षित बाणासुर के खिलाफ युद्ध करते हैं और महादेव तक को परास्त कर देते हैं।
ये कृष्ण का अपनों के प्रति विशेष अनुराग ही था कि नरकासुर को परास्त करने के बाद वे देवलोक जाकर पूर्व में देवताओं के संरक्षक रहे इंद्र के छोटे भाई विष्णु के रिक्त पद पर बैठकर “अगला विष्णु” होने का यश प्राप्त करते हैं तो सम्मान प्राप्त करने के कुछ देर बाद देवलोक में टहलते हुए अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा द्वारा देवलोक के उपवन के सबसे खूबसूरत वृक्ष को अपने राज्य में ले जाने की इच्छा प्रकट करने पर समस्त देवलोक से लड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं और कुछ समय पहले सम्मान देने वाले इंद्र को परास्त करके अपनी पत्नी की अनैतिक इच्छा पूरी करते हैं।
कृष्ण के जीवन का सबसे रोचक पहलूँ यही है कि कृष्ण लकीर के फकीर नही थे। कभी अपनी सुविधा के लिए तो कभी समाज की भलाई के लिए वे धर्म और आचरण के नये मानक स्थापित करते रहते थे।
कहाँ तो वे एक तरफ युद्ध के मैदान में अर्जुन को धर्म का उपदेश देकर गीता का विराट ज्ञान विश्व के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तो वहीं युद्ध मे अपने पक्ष की बेहतरी के लिए स्वयं सबसे बड़े अधर्मी बन जाते हैं।
जहां जरासंध के कोप के भय से एक समय मे भारत की राजनीति में अलग-थलग कर दिए गए यदुकुल को वे तत्कालीन समय की सर्वश्रेष्ठ और सर्वशक्तिशाली सभ्यता के रूप में स्थापित करते हैं तो अपने समय का यह सर्वश्रेष्ठ नायक समय की पुकार के अनुसार कालयवन को पीठ दिखाकर रणछोड़ की उपाधि भी अर्जित कर लेता है।
अफसोस विजेताओं का इतिहास जितना स्वर्णिम होता है, अंत उतना ही दुखद !!
अंतिम समय में यादवों की शराब पीने और झगड़ा करने की आदतों के कारण यदुकुल में कलह बढ़ती गई और एक दिन जब नदी किनारे शराब पीकर उन्मुक्त यादवों ने कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को ही मार डाला तो कृष्ण के सब्र का बांध टूट पड़ा और उन्होंने काल का रूप धारण कर समस्त यादव यौद्धाओं का संहार स्वयं ही कर डाला।
और दुःखी मन से एक पेड़ के नीचे बैठने के दौरान एक बहेलिए के भूलवश चलाये तीर का शिकार होकर अंतिम गति को प्राप्त हुए।
कृष्ण के वंशज अपनी जिम्मेदारी नही निभा पाए। देव जाति का पतन हो गया। नेतृत्वविहीन समाज पंडावाद और मिथ्या कर्मकांडो में फंस कर अधोगति को प्राप्त होता रहा पर समाज को नयी दिशा देने वाले नायक कृष्ण लौट कर नही आये।
युग बीते… बुद्ध आये ! महावीर आये !
फिर विदेशी आक्रांताओं द्वारा रक्तपात-नरसंहार-लूटखसोट का एक दौर शुरू हुआ।
पर “जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं जन्म लेता हूँ” का उद्घोष करने वाले कृष्ण.. नही आये !
औरतों की अस्मिता को तार-तार किया गया।
इस चट्टान के टुकड़े की कुछ गज जमीन पर अपने साम्राज्य और मजहब का परचम बुलंद करने के लिए नवजात शिशुओं को तलवार की नोक पर उछाला गया।
और इंसानी मूर्खता की भेंट चढ़े जलते नगरों की ज्वालाओं को निहारता असहाय मन “कृष्ण आएंगे” का सुमिरन कर अपने दुःखों के हरण के लिए सैकड़ों वर्षों तक किसी ईश्वरीय फरिश्ते का इंतजार करता रहा।
कृष्ण ना तब आये थे
और ना अब आएंगे।
कृष्ण तो जा चुके !!!
कृष्ण स्वयं कहते थे कि,
जब अपने सामर्थ्य को पहचान मनुष्य संकल्प कर उठ खड़ा होता है
तब… समस्त प्रकृति मनुष्य के प्रयोजन सिद्धि में सहयोग करने लगती है।
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अवतार, पैग़म्बर, फरिश्तों की जरूरत तो मुर्दा कौमों को होती है।
एक जिंदा कौम में तो कृष्ण घर-घर में जन्म लेते हैं।
अर्थात…
हे पार्थ !!
जब जब धर्म की हानि होगी
तब तब कृष्ण का जन्म नही होगा
स्वर्ग जाने की इच्छा जिसकी है।
मरना भी तो उसी का अनिवार्य है.

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