यूपी

बिखर गए साथी, हांफने लगा हाथी

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नीरज सिसौदिया, बरेली
चुनावी जंग नजदीक है और सियासी बिसात बिछने लगी है. अबकी बार यूपी का सियासी घमासान बेहद दिलचस्प होगा. इस सियासी संग्राम की सबसे दिलचस्प बात यह है कि बड़े सियासी दलों के बीच प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और ओवैसी की एआईएमआईएम जैसी पार्टियां भी वोटकटवा की भूमिका निभाएंगी. हालांकि ऐन चुनाव से पहले सभी विपक्षी दलों के एक मंच पर आने की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इस बार सियासी योद्धा जरूर बदल सकते हैं. इसका सबसे ज्यादा असर बरेली की सियासत में देखने को मिल रहा है. यहां मुख्य रूप से सपा और भाजपा के बीच ही मुकाबला है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले चुनावों में जो सियासी दिग्गज बहुजन समाज पार्टी के हाथी पर सवार थे वे अब या तो भाजपा के पाले में जा चुके हैं या फिर साइकिल की सवारी कर रहे हैं. वहीं कुछ दिग्गज बीमारी के चलते हाथी को दौड़ाने में असमर्थ नजर आ रहे हैं.
इनमें पहला नाम आता है वर्ष 2012 में शहर विधानसभा सीट से बसपा के प्रत्याशी रहे डा. अनीस बेग का. डा. अनीस बेग पूर्व बसपा विधायक सुल्तान बेग के छोटे भाई हैं. समाज में उनकी छवि काफी साफ सुथरी है. अगर 2012 के चुनाव में हिन्दू-मुस्लिम फैक्टर हावी नहीं होता तो शायद डा. अनीस बेग विधानसभा की सीढ़ियां चढ़ चुके होते. अनीस बेग अब बसपा को अलविदा कह चुके हैं और समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं. इस बार विधानसभा चुनाव लड़ने में भी उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है. उनकी नज़र मेयर की कुर्सी पर बताई जा रही है.
इसी कड़ी में दूसरा नाम आता है कैंट विधानसभा सीट से बसपा से चुनाव लड़ने वाले दिग्गज व्यापारी नेता राजेंद्र गुप्ता का. राजेंद्र गुप्ता की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो संघ की रही है. विगत चुनाव में वह कैंट विधानसभा सीट से भाजपा के टिकट के प्रबल दावेदार भी थे लेकिन पार्टी ने राजेश को मैदान में उतार दिया तो राजेंद्र गुप्ता नाराज होकर हाथी पर सवार हो गए थे. उन्होंने बेहतर चुनाव लड़ा लेकिन जीत हासिल नहीं कर सके. चुनाव हारने के बाद राजेंद्र गुप्ता ने बसपा को अलविदा कह दिया और घर वापसी कर ली.
तीसरा और सबसे बड़ा नाम है मेयर डा. उमेश गौतम का. उमेश गौतम ने भी बसपा से ही विधानसभा चुनाव लड़ा था लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. फिर वह बसपा को बाय बाय करके भगवा ब्रिगेड का हिस्सा बन गए. भगवा की ताकत मिलते ही उमेश गौतम के सितारे बुलंदियों के आसमान पर चमकने लगे और वह भाजपा से मेयर बन गए. मेयर बनने के बाद मेयर ने शहरवासियों का दिल जीतना शुरू कर दिया. अब आलम यह है कि मेयर के दरबार से किसी को भी खाली हाथ नहीं लौटना पड़ता, फिर चाहे वह विपक्षी दल का ही क्यों न हो.
इनके अलावा बहोरन लाल मौर्या और सुल्तान बेग समेत कई अन्य दिग्गज भी रहे हैं जो बसपा से अब नाता तोड़ चुके हैं.
बसपा को सबसे बड़ा झटका पूर्व विधायक वीरेंद्र गंगवार के रूप में लगा है. वीरेंद्र गंगवार का नाम शहर के उन दिग्गज नेताओं के तौर पर लिया जाता है जो अपने दम पर सियासी हवा का रुख मोड़ने की कूवत रखते थे मगर अब बीमारी ने उन्हें चपेट में ले लिया है. वह लंबे समय से बीमार चल रहे हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में वह कितने सक्रिय रहेंगे यह कहना फिलहाल मुश्किल है. चर्चा तो यह भी है कि उनके सुपुत्र का विवाह किसी सपा नेता की पुत्री से तय है जिसके चलते कयास लगाए जा रहे हैं कि अबकी बार उनका बेटा ही पिता की सियासत की विरासत को संभालेगा. संभावना है कि वीरेंद्र गंगवार का बेटा सपा से उम्मीदवार भी हो सकता है. वहीं माना यह भी जा रहा है कि वीरेंद्र गंगवार के भाई बसपा से कमान संभाल सकते हैं.
बहरहाल, बसपा के इस बिखराव की वजह से बरेली के सियासी सफर में मायावती का हाथी हांफने लगा है. ऐसे में बसपा के प्रत्याशी बरेली की सीटों पर सिर्फ वोटकटवा की ही भूमिका निभा सकते हैं, सीट निकालना उनके बस की बात नहीं लगती.

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