नीरज सिसौदिया, बरेली
प्रदेश की सियासत में कैंट विधायक और पूर्व वित्त मंत्री व भाजपा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष राजेश अग्रवाल का दबदबा शायद अब पहले जैसा नहीं रहा. वित्त मंत्री का पद जाने के उनके करीबियों को भी दरकिनार किया जाने लगा है. इसका ताजा उदाहरण सोमवार को मुजफ्फरनगर में उस वक्त देखने को मिला जब राजेश अग्रवाल की करीबी पालिका अध्यक्ष अंजू अग्रवाल को मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की बैठक में घुसने तक नहीं दिया गया और वह बैठक कक्ष के बाहर मीडिया के सामने ही फूट फूट कर रो पड़ीं.
भाजपा जिलाध्यक्ष विजय शुक्ला, डीएम सेल्वा कुमारी जे और एडीएम प्रशासन ने उनका फोन तक नहीं उठाया। उन्होंने राज्यमंत्री कपिलदेव अग्रवाल से भी बात की थी, जिन्होंने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। यह जनप्रतिनिधियों की बैठक थी जिसमें भाजपा जिला अध्यक्ष खुद शामिल हुए थे जबकि वह जनप्रतिनिधि नहीं हैं. वहीं सहारनपुर में योगी ने जनप्रतिनिधियों की जो बैठक की उसमें महापौर शामिल हुए थे। शहर की प्रथम नागरिक होने के नाते अंजू अग्रवाल का यह अधिकार बनता था कि उन्हें बैठक में शामिल किया जाए.
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दरअसल, अंजू अग्रवाल कुछ साल पहले कांग्रेस का हिस्सा हुआ करती थीं. जब केंद्र और यूपी की सत्ता पर भाजपा काबिज हुई और राजेश अग्रवाल वित्त मंत्री बने तो वह स्थानीय भाजपा नेताओं के विरोध के बावजूद अंजू अग्रवाल को भाजपा में लेकर आ गए. यह वह दौर था जब कई भाजपा नेता अंजू अग्रवाल के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने की तैयारी कर रहे थे. हाईकमान से थोपी गई अंजू अग्रवाल जिले के भाजपाइयों को रास नहीं आ रही थीं. अब जबकि राजेश अग्रवाल वित्त मंत्री नहीं रहे और प्रदेश की राजनीति में उनका दखल भी काफी हद तक कम हो चुका है तो ऐसे में अंजू अग्रवाल जैसे राजेश अग्रवाल के करीबी उपेक्षित किए जाने लगे हैं.
बात सिर्फ मुजफ्फरनगर की ही नहीं है. बरेली में भी पिछले दिनों कई ऐसे कार्यक्रम हुए जिनसे राजेश अग्रवाल दूर ही नजर आए. सियासी सूत्र बताते हैं कि भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन से भी राजेश अग्रवाल के राजनीतिक रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रह गए हैं. केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह के करीबी राजेश अग्रवाल का कद राष्ट्रीय राजनीति में तो बढ़ता जा रहा है लेकिन प्रदेश की राजनीति में वह उपेक्षित नजर आ रहे हैं. जिस तरह से मुजफ्फरनगर में उनकी करीबी अंजू अग्रवाल की उपेक्षा की गई उससे स्पष्ट है कि आने वाला समय राजेश अग्रवाल के करीबी भाजपाइयों के लिए बहुत अच्छा नहीं होने वाला.
इन परिस्थितियों में राजेश अग्रवाल को अपने करीबियों को उचित मान सम्मान दिलवाने के लिए कड़े प्रयास करने होंगे. अगर वह अपने करीबियों को बनता मान सम्मान नहीं दिला सके तो स्थानीय राजनीति में अपना अस्तित्व पूरी तरह खो देंगे.
हाल ही में कोरोना को लेकर भी राजेश अग्रवाल ने मुख्यमंत्री को ट्वीट कर प्रदेश में व्याप्त अव्यवस्था को उजागर किया था. इसके बाद से माना जा रहा है कि राजेश अग्रवाल भी प्रदेश सरकार की कार्यशैली से खुश नहीं हैं.
राजेश अग्रवाल का असल इम्तिहान आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर होने वाले टिकट बंटवारे में होगा. इसमें राजेश अग्रवाल के समक्ष अपने सुपुत्र को टिकट दिलाने के साथ ही करीबियों को भी टिकट दिलवाने की चुनौती होगी. अगर राजेश अग्रवाल इसमें कामयाब हो गए तो एक बार फिर प्रदेश की राजनीति में पुराना कद हासिल कर लेंगे वरना उनके सियासी सूर्यास्त को कोई नहीं रोक पाएगा.