विचार

प्रमोद पारवाला की कविताएं- ‘अनुभूति’

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कब दिन निकला कब रात हुई,
हम समझ भी नहीं पाते हैं।
बच्चों का कलरव सुनने को,
यह कान तरस से जाते हैं।
हर ओर कराहट जीवन की,
एक स्वर हमारा शामिल है।
मृत्यु से जंग भी जारी है,
फिर भी न हमें कुछ हासिल है।
कोरोना तू तो अकेला है
पर उनके तो घरवाले हैं,
क्यों तड़पा -तड़पा मार रहा,
यह खूनी खेल निराले हैं।
मरना तो इक दिन था हमको,
पर अपने पास सभी होते।
जाना तो अकेले था हमको,
पर कुछ पग साथ सभी देते।
कहते थे बड़ी शान से हम,
बेटो के कंधे जायेंगे।
कंधे तो छोड़ो अब हम तो,
उनको देख नहीं पायेंगे।
इक आस जगी थी आँखों मे,
कोई तो अपना आयेगा,
हर ओर खोजती अपनो को
शायद कोई दिख जायेगा।
हम समझ रहे हैं वे भी तो,
हमसे ज्यादा व्याकुल होगें,
बस एक झलक पाने मेरी,
बेचैन बहुत आकुल होगें।
आँखों से आँसू बहते हैं,
पोछने वाला कोई नही।
“चिन्ता ना करो ठीक होगे,’
यह कहने वाला कोई नही।
चेहरा खोल देना मेरा,
मत अनजानो को दे देना।
आग लगाये अपने ही सब,
उनसे हक़ छीन नही लेना,
यह कैद यहा्ँ की ऐसी है,
होती कोई मिलाई नहीं।
मरते -मरते मर जाओ तुम,
होती कोई ढिलाई नही।
साँसो पर भारी कोरोना,
डूबी -डूबी सी जाती हैं,
“अब दम निकला अब दम निकला,’
यह ही एहसास दिलाती हैं।
सब जाने वाले भी हमको ,
यह ही एहसास दिलाते हैं।
तुम पीछे -पीछे आ जाना,
हम आगे-आगे जाते हैं।
बस तड़प-तड़प कर ही हमने,
अपनो को टेर लगाई थी,
पर दूर थे उनसे इतने हम,
जो उनको नही सुनाई दी।
जाते -जाते भी फिर हमने,
कस के सभी को पुकारा था।
घोट दी साँसे कोरोना ने,
अब कोई नही हमारा था।
हम तो जाते हैं कोरोना,
फिर भी क्या तू बच पायेगा ?
बिन पानी की मछली सा ही,
तू तड़प -तड़प मर जायेगा।
जाल पड़े हैं सभी ओर से,
मनुष्य तुझे नही छोड़ेगा।
जिस दिन हत्थे चढ़ जायेगा ,
कस -कस के तुझे निचोड़ेगा।
जिनने अपनो को खोया है,
उनकी यह जलती आहे हैं

अपने चँगुल मे फँसा रही,
वे कोरोना की बाँहें हैं ।
इस दारुण दु ;ख के समय मे
हम सब भी उनके साथी हैं।
सहने की शक्ती दे उनको,
ईश्वर से हम सब प्रार्थी हैं।

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