पंजाब

भाजपा में सिरमौर तो जालंधर कांग्रेस में उपेक्षित हैं हिमाचली, न मेयर बने न विधायक और न ही बनाया जिला प्रधान

Share now

नीरज सिसौदिया, बरेली
सियासत की शतरंज में हर मोहरे का किरदार बेहद अहम होता है. बाजी उसी की होती है जो हर घर सुरक्षित रखता है. एक छोटे से घर में भी सेंध लग जाए तो पूरा किला ध्वस्त हो सकता है. जालंधर की सियासत में हिमाचल के बाशिंदे भी एक ऐसे ही घर की तरह हैं जिसमें सेंधमारी कर बड़ी से से बड़ी बाजी पलटी जा सकती है. भारतीय जनता पार्टी इस बात से भली भांति वाकिफ है मगर कांग्रेस ने हमेशा इस घर की उपेक्षा ही की है. या यूं कहें कि कांग्रेस अब तक जालंधर में हिमाचल से आकर बसे हजारों परिवारों का भरोसा नहीं जीत सकी है.
सबसे पहले बात करते हैं राजनीतिक दलों में हिमाचल से आए लोगों की भूमिका पर. जालंधर में प्रमुख रूप से तीन राजनीतिक दल हैं जिनके इर्द गिर्द सत्ता घूमती है. पहला शिरोमणि अकाली दल, दूसरा कांग्रेस और तीसरा दल भाजपा है. एक अनुमान के मुताबिक जालंधर में मूलरूप से हिमाचल के रहने वाले मतदाताओं की संख्या करीब डेढ़ से दो लाख के बीच है. इनमें अकाली दल में हिमाचलियों की संख्या लगभग न के बराबर है. इसकी वजह यह रही कि अब तक भारतीय जनता पार्टी और अकाली दल का गठबंधन था और भाजपा ने हिंदुत्व के एजेंडे के चलते हिमाचलियों को अपने खेमे में किया हुआ था. यही वजह रही कि अकाली दल ने सिखों को साधा और भाजपा ने हिंदुओं को और दस साल तक लगातार पंजाब पर राज किया जो कांग्रेस नहीं कर पाई. भाजपा ने हिमाचली पृष्ठभूमि के राकेश राठौर को मेयर बनाया, हिमाचली पृष्ठभूमि के ही सुशील कुमार शर्मा को जिला अध्यक्ष बनाया, सनी शर्मा भी हिमाचली हैं और हिमाचली पृष्ठभूमि के ही किशनलाल शर्मा को कभी युवा मोर्चा का अध्यक्ष पद भी सौंपा था. कालिया और भंडारी को सरेआम बेइज्जत करने के बावजूद किशनलाल शर्मा की पार्टी में वापसी भी करा दी गई. इतना ही नहीं संघ के बड़े नेता विजय नड्डा, बनवीर जी और राजेंद्र जी भी मूलरूप से हिमाचल प्रदेश के ही रहने वाले हैं. कुल मिलाकर जालंधर भाजपा में जिस तरह से हिमाचली पृष्ठभूमि वालों को तरजीह दी गई उसने अकाली दल से अलग होने के बावजूद जालंधर में भाजपा के अस्तित्व को धूमिल नहीं होने दिया. इसके उलट कांग्रेस ने कभी हिमाचली पृष्ठभूमि के नेताओं को उभरने ही नहीं दिया. बलराज ठाकुर जैसे नेताओं को दरकिनार कर नाकाबिल नेताओं को तरजीह दी गई. वर्तमान सियासी हालात बदल चुके हैं. अकाली दल भाजपा से अलग होने के बाद और मजबूत हुआ है क्योंकि अब भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे से खफा सिख भी अकालियों के साथ हो लिये हैं. वहीं अकाली दल के दोफाड़ होने से सिखों में भी बिखराव आया है. इस बार सिख वोट अकाली दल, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी समेत चार दलों में बंटेगा. ऐसे में हिन्दू वोट जिसकी झोली में गिरेंगे विजेता भी वही होगा. चूंकि इस बार मोदी सरकार की इतनी ज्यादा फजीहत हो चुकी इसलिए हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए सिर्फ दो ही फैक्टर काम करेंगे. पहला यूपी-बिहार और दूसरा हिमाचल. कांग्रेस को इन दोनों फैक्टर्स पर काम करना होगा. समय रहते कांग्रेस जिला अध्यक्ष की कुर्सी किसी ऐसे नेता को देनी होगी जो इन दोनों वर्गों को साध सके. तभी जालंधर शहर की चारों विधानसभा सीटों पर कब्जा जमा पाएगी. अगर कांग्रेस इस ओर ध्यान नहीं देगी तो निश्चित तौर पर बाजी हाथ से निकल जाएगी.
जालंधर की सियासत में हिमाचली वोटों की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनावों में अकाली-भाजपा गठबंधन प्रत्याशी मनोरंजन कालिया के एक समर्थक ने हिमाचलियों को लेकर अभद्र टिप्पणी कर दी थी तो हिमाचली वोट राजिंदर बेरी के खाते में जा गिरे और कालिया जीतते-जीतते चुनाव हार गए.
बहरहाल, हिमाचली लोग अब कांग्रेस में भी प्रतिनिधित्व चाहते हैं. अगर अब भी हिमाचलियों की उपेक्षा बरकरार रही तो कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. भाजपा के अस्तित्व को पंजाब में मिटाने का कांग्रेस के पास यह सुनहरा मौका है. अब देखना यह होगा कि कांग्रेस इस मौके का फायदा उठा पाती है या नहीं.

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *