यूपी

भाजपा को ले डूबेंगे नगर निगम के नाले और घोटाले

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नीरज सिसौदिया, बरेली
विधानसभा चुनाव 2022 की तैयारियां तेज हो चुकी हैं। सत्ता पक्ष‍ हो या विरोधी, हर कोई अपनी सियासी चाल चलने लगा है। देहात क्षेत्र में भले ही मुद्दे कुछ हटकर हों पर शहरी इलाकों में विधानसभा का चुनाव काफी हद तक नगर निगम पर सत्तासीन पार्टी की कारगुजारियों पर भी निर्भर करता है। बरेली नगर निगम पर फिलहाल भाजपा का कब्जा है। बरेली नगर निगम के 80 वार्डों को शहर और कैंट दो विधानसभा सीटों में बांटा गया है। ऐसे में निश्चित तौर पर उक्त दोनों विधानसभा सीटों पर होने वाला चुनाव नगर निगम की कारगुजारियों पर निर्भर करेगा।


अब जरा फ्लैश बैक में आते हैं। वर्ष 2017 में जब नगर निगम चुनाव हुए थे तो उस वक्त समाजवादी पार्टी के आईएस तोमर मेयर थे और नगर निगम पर सपा का कब्जा था। उस वक्त मुख्य मुद्दा विकास का ही था। आईएस तोमर पांच साल पूर्व सुप्रिया ऐरन से पहले भी मेयर रह चुके थे। कुल मिलाकर तोमर को दस साल बतौर मेयर जनता का दिल जीतने के लिए मिले थे लेकिन तोमर जनता का दिल कभी नहीं जीत सके। पहले कार्यकाल के बाद उन्हें सुप्रिया ऐरन ने धूल चटा दी थी तो दूसरे कार्यकाल के बाद भाजपा के उमेश गौतम से तोमर को मुंह की खानी पड़ी थी। स्पष्ट है कि तोमर के कार्यकाल की कुछ खामियां रही होंगी कि जनता ने उन्हें दो बार जिताने के बावजूद दोबारा मौका नहीं दिया. तोमर समर्थक कहते हैं कि तोमर ने अपने कार्यकाल में बेतहाशा विकास कराया था। वहीं विरोधी कहते हैं कि तोमर ने विकास नहीं कराया जिस कारण शहर आज भी बदहाल है। उनका मानना है कि तोमर की नाकामियों और मोदी लहर ने ही भाजपा को नगर निगम की कमान सौंपी थी।

अब नगर निगम पर भाजपा को काबिज हुए लगभग साढे़ तीन साल का समय हो चुका है लेकिन हालात अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदल सके हैं। योजनाएं जरूर बनी हैं मगर वह पूरी तरह अस्तित्व में नहीं आ सकी हैं. कुछ कागजों में चल रही हैं तो कुछ पर काम चल रहा है. शहर में जलभराव की समस्याा का स्थायी समाधान आज तक नहीं निकल सका है। जो हाल सपा कार्यकाल में था कुछ वैसा ही अब भी है। कुछ इलाकों में पहले से कुछ राहत तो है मगर यह राहत नाकाफी है. कई जगह सड़कों पर मिट्टी डालकर ठेकेदार फरार हो चुका है. ऐसी जगहों पर दलदल जैसे हालात बन गए हैं. थोड़ी सी बरसात में शहर की सड़कें जलमग्न हो जाती हैं और नालियां ओवरफ्लो हो जाती हैं। हर साल नालों की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये के टेंडर निकालकर निजी कंपनियों और निगम अफसरों की झोलियां भर दी जाती हैं लेकिन जनता की समस्या का कोई समाधान नहीं निकल पाता। इस साल भी वही हुआ। नालों की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये खपा दिए गए। अधिकारियों की जेबें भर गईं पर नालों की सफाई नहीं हो सकी और प्री मॉनसून की बारिश ने ही नगर निगम के दावों और घोटालों का पर्दाफाश कर दिया। जगह-जगह जलभराव ने लोगों की मुसीबतें बढ़ा दीं लेकिन निगम कमिश्नर और जिम्मेदार अफसर सिर्फ तमाशबीन बने रहे।

विकास के प्रोजेक्ट अफसरों की लापरवाही के चलते कागजों में ही दौड़ रहे हैं। शहर में कई जगहों पर सड़कों का भी बुरा हाल है। कुछ जगहें तो ऐसी हैं जहां नई बनी सड़कों पर भी गड्ढे नजर आने लगे हैं। इसकी वजह है कि शहर में सड़कों का निर्माण इंडियन स्टैंडर्ड के अनुसार नहीं किया जाता. नगर निगम के अधिकारी आपस में ही सड़कों का डिजाइन तैयार कर लेते हैं और उसे पास कर दिया जाता है. नतीजा यह होता है कि सड़कें साल भर में ही दम तोड़ने लगती हैं और अधिकारियों को जेबें भरने का एक और मौका मिल जाता है. अतिक्रमण का हाल भी किसी से छुपा नहीं है। कई जगहों पर अब भी नगर निगम की सड़कों पर अतिक्रमण कर दुकानें और शोरूम खड़े कर दिए गए हैं। कुछ जगहों पर कार्रवाई की नौबत आती भी है तो मामला कोर्ट में चला जाता है. अगर बिल्डिंगों के निर्माण के समय ही इसे रोक दिया जाता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती लेकिन अधिकारी उस वक्त अपनी जेबें भरने में मशगूल रहते हैं. अवैध कालोनियों में किस नियम के तहत करोड़ों रुपये की सड़कें बनाई जा रही हैं यह कोई बताने को तैयार नहीं और वैध कालोनियों के लोग बदहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
दशकों से बदहाली का दंश झेल रहे पुराने शहर सहित अन्य इलाकों को राहत दिलाने की योजनाएं जाने कब धरातल पर उतरेंगी, यह कोई नहीं बताता। नगर निगम भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है। बेलगाम अफसरशाही का इससे बेहतर नमूना शायद ही अन्यत्र कहीं देखने को मिले। नगर आयुक्त कभी अपने ही मेयर की खिलाफत को लेकर चर्चा में रहते हैं तो कभी सरकारी नियमों का उल्लंघन करने के कारण सुर्खियां बटोरते रहते हैं। किसी अच्छे कार्य के लिए शायद ही कभी उन्होंने वाहवाही बटोरी हो। डोर-टु-डोर कूड़ा कलेक्शन का भी बुरा हाल है। कहीं तो कर्मचारी आते हैं लेकिन कहीं महीनों सूरत तक नहीं दिखाते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब अधिकारी कोई काम ठीक से कर ही नहीं पा रहे तो जनता के टैक्स का पैसा उन्हेंन मोटी सैलरी के रूप में क्यों दिया जा रहा है? सरकार उन पर लगाम क्यों नहीं लगा पा रही? क्या सरकारी नुमाइंदे भी इस भ्रष्टाचार के हिस्सेदार हैं? यह निगम अधिकारियों की नाकामी का ही नतीजा है कि सतीश चंद्र सक्सेूना कातिब उर्फ मम्माब, आरेंद्र अरोड़ा कुक्की और शशि सक्सेना जैसे पार्षदों को अपनी ही पार्टी की सत्ता होने के बावजूद सुबह छह बजे से धरने पर बैठने को मजबूर होना पड़ा। नगर आयुक्त की मनमानी का आलम यह है कि जनता तो दूर वह पार्षदों तक का फोन नहीं उठाते. नगर निगम के अधिकारियों की यह नाकामी निश्चित तौर पर आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की नैया डुबोएगी। अगर अब भी बेलगाम अफसरशाही पर अंकुश नहीं लगाया गया तो नगर निगम के नाले और घोटाले भाजपा को भारी पड़ेंगे।

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