रानी लक्ष्मी बाई की पुण्यतिथि पर विशेष
“मणिकर्णिका’था नाम उसका,
वह”मोरोपंत’ की बेटी थी ।
युद्ध कौशल, निशानेबाजी,
घुड़सवारी की चहेती थी।
मर्दानी सी रहती थी वह,
मर्दों जैसा ही शौर्य था।
प्रजा के लिए उसके उर मे,
अद्भुत प्रेम वा औदार्य था।
“गंगाधर’ से ब्याह हुआ था,
झांसी की रानी बन आई।
“लक्ष्मीबाई’ था नाम मिला.
झांसी की किस्मत चमकाई।
पति की मृत्यु के बाद उस ने ,
स्वंय राज्य – डोर संभाली थी।
दामोदर था अल्पायु, दत्तक,
वह ही उसकी रखवाली थी।
राजा-विहीन, राज्य आधीन
करें अँग्रेज़ों ने ठानी थी
“झांसी नहीं दूंगी मैं अपनी,’
तब गरज उठी महारानी थी
अस्त्र – शस्त्र से सज्जित हो कर,
वह रणबांकुरी लगती थी।
रणभूमी में जाकर के तो ,
सिंहनी सी ही गरजती थी।
ले लगाम मुँह में अपने “औ’.
दोनों हाथों मे तलवारें।
गाजर मूली सी काट रही,
ग्रीवायें देकर ललकारें।
शत्रु का कलेजा हिलता था,
रानी का रौद्र रूप देखकर।
जिस ओर निकलती वीरांगना,
साफ हो जाता पूरा लश्कर।
खप्पर भरती महाकालिका,
कट-कट जब मस्तक गिरते थे।
खून फिरंगी का बहता था,
रानी के नश्तर चलते थे।
घोड़ा भी जांबाज बहुत था,
जो तीव्र वेग से उड़ता था।
छू ना पाए कोई फिरंगी,
रानी के संग वह लड़ता था।
होड़ हवा से ले तुरंग वह,
सेना के बीच विचरता था।
दाँतों से चबाकर शत्रु को,
टापों से सर को कुचलता था।
घेरा डाला अंग्रेज़ों ने,
पर हाथ नहीं आई रानी,
पुत्र पृष्ठ बद्ध, अश्व पीठ चढ़,
किले से कूदी मर्दानी।
बीच समर से किया पलायन,
जब साथी निज मरते देखे।
तीर गति से चली महारानी,
बाकी सब ही पीछे देखे।
ग्वालियर से चली थी छबीली,
रस्ते में एक नाला आया।
बाजि नया था अड़ा वहीं पर।
फिर नाला फलांग नहीं पाया।
पीछा करती आ गई वहीं ,
पर अंग्रेज़ों की एक टुकड़ी।
टूट पड़ी मर्दानी भी फिर,
करवालें हाथों में पकड़ी।
पुरुष वेश मे महारानी को,
कोई नहीं पहचान पाया।
घायल होकर गिरी वहाँ पर,
उठा के रक्षक मठ लाया।
पुत्र को सौंपा विश्वासी को,
और वीरगति को प्राप्त हुई।
मरते -मरते भी रानी ने,
फिर एक आखिरी बात कही।
मेरा मृत शरीर भी देखो,
अंग्रेज नहीं छूने पायें।
आजादी से पूर्व क्रांति की,
यह ज्वाला न बुझने पाये।
आनन-फानन में सजी चिता,
रानी को सम्मान मिला था,
अपने लोगों के हाथों ही,
उसे भी अग्निदान मिला।
आज ही के दिन बुझ गई थी,
क्रांति की सुलगती चिंगारी।
चलो आज फिर नमन करें हम
दें श्रद्धांजलि वारी -वारी।
– लेखिका-प्रमोद पारवाला बरेली उत्तर प्रदेश।