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चित्र सब विचित्र हुए…

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चित्र सब विचित्र हुए।
मित्र भी अमित्र हुए।
चित्र सब विचित्र हुए।

बेला जब बदल गई,
चांदनी भी ढल गई,
पक्षियों के कलरव में,
भोर भी फिसल गई,
मध्याह्न जो चढ़ा तनिक
तो बदले से चरित्र हुए।
चित्र सब विचित्र हुए।

बृहद कोश बन गए,
अपशब्द यूॅं बिखर गए ,
पाप के प्रभाव से ही,
पुण्य सभी जल गए,
समर्थकों की ताॅंत लगी,
सब के सब सुमित्र हुए।
चित्र सब विचित्र हुए।

राहें बड़ी क्लिष्ट थीं,
रातें भी अशिष्ट थीं,
भावनाएं शुद्धि की,
सिद्धियाॅं अभिष्ट थीं,
लक्ष्य पर पहुॅंचते ही,
सब ही सच्चरित्र हुए,
चित्र सब विचित्र हुए।

चित्र सब विचित्र हुए।
मित्र भी अमित्र हुए।
चित्र सब विचित्र हुए।

-डॉ. नीलिमा पाण्डेय।
मुंबई।

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