प्रो.संजय द्विवेदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है कि वे अपने विरोधियों के निशाने पर ही रहते हैं। इसका खास कारण है कि वे अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट हैं और लीपापोती, समझौते की राजनीति उन्हें नहीं आती। राष्ट्रहित में वे किसी के साथ भी चल सकते हैं, समन्वय बना सकते हैं, किंतु विचारधारा से समझौता उन्हें स्वीकार नहीं है। उनकी वैचारिकी भारतबोध, हिंदुत्व के समावेशी विचारों और भारत को सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की अवधारणा से प्रेरित है। यह गजब है कि पार्टी के भीतर अपने आलोचकों पर भी उन्होंने कभी अनुशासन की गाज नहीं गिरने दी,यह अलग बात है कि उनके आलोचक राजनेता ऊबकर पार्टी छोड़ चले जाएं। उन्हें विरोधियों को नजरंदाज करने और आलोचनाओं पर ध्यान न देने में महारत हासिल है। इसके उलट पार्टी से नाराज होकर गए अनेक लोगों को दल में वापस लाकर उन्हें सम्मान देने के अनेक उदाहरणों से मोदी चकित भी करते हैं।
किसी व्यक्ति की लोकतांत्रिकता उसकी अपने दल के साथियों से किए जा रहे व्यवहार से आंकी जाती है। मोदी यहां चौंकाते हुए नजर आते हैं। वे दल के सर्वोच्च नेता हैं किंतु उनका व्यवहार ‘आलाकमान’ सरीखा नहीं है। आप उन्हें तानाशाह भले कहें, किंतु तटस्थ विश्लेषण से पता चलता है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद आजतक उनकी आलोचना करने वाले अपने किसी साथी के विरूद्ध उन्होंने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होने दी। कल्पना करें कि किसी अन्य दल में अपने आलाकमान या सर्वोच्च नेता की आलोचना करने वाला व्यक्ति कितनी देर तक अपनी पार्टी में रह सकता है। नरेंद्र मोदी यहां भी रिकार्ड बनाते हैं। जबकि भाजपा में अनुशासन को लेकर कड़ी कारवाईयां होती रही हैं। भाजपा और जनसंघ के दिग्गज नेताओं में शामिल रहे बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, बीएस येदुरप्पा जैसे दिग्गजों पर कार्रवाइयां हुई हैं, तो गोविंदाचार्य पर भी एक कथित बयान को लेकर गाज गिरी। उन्हें अध्ययन अवकाश पर भेजा गया, जहां से आजतक उनकी वापसी नहीं हो सकी है। मोदी का ट्रैक अलग है। वे आलोचनाओं से घबराते नहीं और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की छूट देते हुए अपने आलोचकों को भरपूर अवसर देते हैं।
