नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
आम आदमी पार्टी भले ही अपने काम के दम पर दिल्ली की सत्ता में वापसी का सपना देख रही हो लेकिन चुनावी लड़ाई इतनी भी आसान नहीं होगी. एक बड़ा वर्ग भले ही केजरीवाल के काम से खुश है लेकिन उसी केजरीवाल की कार्यशैली से एक बड़ा वर्ग नाराज भी है. ये वो तबका है जो ज्यादातर मतदान की लाइन में खड़े रहना पसंद नहीं करता. इनमें वो अफसरशाही भी शामिल है, वो दलाल भी शामिल हैं और वो ठेकेदार भी शामिल हैं जिनका धंधा केजरीवाल की वजह से चौपट हो गया है. वहीं भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के पारंपरिक वोट बैंक भी है जो केजरीवाल की मुश्किलें बढ़ा सकता है. साथ ही पिछले दिनों में दिल्ली में जो घटनाक्रम हुए उनमें अरविंद केजरीवाल का जो रिएक्शन रहा उसका भी असर दिल्ली के चुनावों पर जरूर पड़ेगा. पुलिस और वकीलों के मामले केजरीवाल जिस तरह से खुलेआम वकीलों का समर्थन करते नजर आए थे उससे दिल्ली पुलिस में उन्हें लेकर एक नाराजगी जरूर देखने को मिली. अगर यह नाराजगी विपक्षी दलों के वोट बैंक में तब्दील हो गई तो केजरीवाल के लिए भी मुसीबत खड़ी हो सकती है. बिजली, पानी, स्कूल, बसों में फ्री सफर और सड़क के जिन मुद्दों पर केजरीवाल वोट मांग रहे हैं उन मुद्दों का भी दिल्ली की जनता के एक बड़े वर्ग को कोई लाभ नहीं पहुंचा है. दरअसल, दिल्ली के जो वास्तविक वोटर हैं उनमें से ज्यादातर इतने सक्षम हैं कि केजरीवाल के मुफ्त पानी की जगह आरओ का पानी ही पी रहे हैं. बसों में भेड़ बकरियों की तरह फ्री यात्रा करने की जगह वह मेट्रो या निजी वाहनों में यात्रा करना ज्यादा पसंद करते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो मेट्रो में एक भी महिला नजर नहीं आती. बात अगर बिजली की करें तो जितनी बिजली केजरीवाल सरकार मुफ्त दे रही है इन वोटर्स के लिए वो बिजली ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ के समान साबित हो रही है. ये वो लोग हैं जिनके घरों में भारी मात्रा में किरायेदार रहते हैं, एसी, गीजर, टीवी, फ्रीज जैसी चीजें उनके घरों में दिनभर चलती हैं और बिजली के बिल के रूप में वो आज भी मोटी रकम सरकार को दे रहे हैं. मीटर चार्ज समेत कई अन्य चार्ज तो लोगों को देने ही पड़ रहे हैं. कई मकान मालिकों ने तो किरायेदार को इस डर से अलग मीटर नहीं लगाने दिये कि कहीं बाद में किरायेदार उनके मकान में मालिकाना हक न जताने लगे. मोहल्ला क्लीनिक, फ्री इलाज और सरकारी स्कूलों में निश्चित तौर पर केजरीवाल ने हर वर्ग को फायदा पहुंचाने का प्रयास किया है लेकिन यहां भी एक खास वर्ग को ही इसका लाभ मिल पा रहा है. सरकारी स्कूलों में सुधार के बावजूद प्राइवेट स्कूलों में बच्चों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है. अगर केजरीवाल के स्कूल इस खास वर्ग को लुभाने में सक्षम होते तो आज भी अभिभावक हजारों रुपये की डोनेशन और नेताओं की सिफारिश लेकर अपने बच्चों का एडमिशन कथित तौर पर लुटेरे कहे जाने वाले बड़े-बड़े निजी स्कूलों में नहीं कराते.
बात अगर सरकारी अस्पतालों की करें तो वहां भी बाहरी राज्यों से आने वाले मरीजों का बोलबाला है. इसी चक्कर में छोटी-मोटी बीमारियों में यह खास वर्ग सरकारी अस्पतालों की लाइन में खड़ा होने की बजाय सौ-दो सौ रुपये की पर्ची कटवाकर निजी डॉक्टरों के पास ही इलाज कराने जा रहा है. अगर ऐसा नहीं होता तो शायद दिल्ली के आधे से ज्यादा अस्पतालों में ताले लटक रहे होते. बड़ी बीमारियों में भी यह खास वर्ग अपोलो और मेदांता या एम्स जैसे अस्पतालों का ही रूख करना पसंद करता है. तो इस वर्ग को केजरीवाल की फ्री की योजनाओं से कोई लाभ नहीं हुआ.
दिल्ली सहित पूरे देश में जो सबसे बड़ा मुद्दा है वो है रोजगार और व्यापार का मुद्दा. इस दिशा में न तो केंद्र की भाजपा सरकार कोई बड़ी उपलब्धि अपने खाते में दर्ज करा पाई है और न ही केजरीवाल सरकार. केजरीवाल ने जिन कर्मचारियों को पक्का करने का वादा किया था उन्हें भी पक्का नहीं किया. दिल्ली में लोगों को प्राइवेट सेक्टर में रोजगार तो मिल रहा है लेकिन सैलरी न्यूनतम मजदूरी से भी कम दी जा रही है. ऐसे में अगर नियोक्ता के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है तो वो रोजगार भी खत्म हो जाएंगे जिनके भरोसे कम से कम दो वक्त की रोटी गरीबों को मिल पा रही है. केजरीवाल ने दिल्ली को विकास की एक झलक जरूर दिखाई है लेकिन केजरीवाल का विकास सतही स्तर से आगे नहीं बढ़ पाया है. अगर केजरीवाल इन पांच वर्षों में स्थाई रोजगार की दिशा में काम करते तो उनकी फ्री स्कीम की जरूरत दिल्ली के किसी भी बाशिंदे को नहीं पड़ती लेकिन केजरीवाल को डर था कि अगर वह समस्याओं का स्थाई समाधान कर देंगे तो उनकी सियासत का क्या होगा? यही वजह है कि केजरीवाल ने भी भाजपा और कांग्रेस की राह पकड़ी. उन्होंने जनता की बामारी को जड़ से खत्म करने की जगह सिर्फ फस्ट एड करके छोड़ दिया. यही वजह है कि केजरीवाल अगले पांच वर्षों में भी दिल्ली की सफाई की बात तो करते हैं, पानी और सीवरेज की बात तो करते हैं लेकिन स्थाई रोजगार उनकी लिस्ट में शामिल नहीं है. भोली भाली जनता केजरीवाल के इस खेल को नहीं समझती. इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस और भाजपा हैं. जिन्होंने जनता को इतना छला कि केजरीवाल को दिल्ली की मासूम जनता भगवान मानने लगी है. यही वजह है ये दोनों दल केजरीवाल का सही तरीके से विरोध भी नहीं कर पा रहे हैं. जाने-माने सुपरस्टार राजकुमार की एक फिल्म का एक डायलॉग भी है, “जिनके अपने घर शीशे के हों वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते”. यही हाल कांग्रेस और भाजपा का है. जिन्होंने खुद जनता से झूठे वादे किए वो किस मुंह से जनता के सामने जाएंगे.
इस बार हालात कुछ बदल सकते हैं अगर यह खास तबका वोट डालने के लिए पोलिंग बूथ पर पहुंचा तो. बहरहाल, दिल्ली का मैदान दूर नहीं है. वादों और दावों की जंग शुरू हो चुकी है. जनता एक बार फिर सियासी मोहरा बनने को तैयार है.