नीरज सिसौदिया, जालंधर
पंजाब में विधानसभा चुनाव भले ही 2022 में प्रस्तावित हैं मगर सियासी सरगर्मियां अभी से तेज होने लगी हैं. जालंधर की चार में एक जालंधर कैंट विधानसभा सीट शिरोमणि अकाली दल के खाते में है और इस बार यही सीट सबसे हॉट बनी हुई है. इसकी कई वजहें हैं. पहली वजह ये है कि यहां से पूर्व प्रत्याशी रहे सरबजीत मक्कड़ लगातार चुनाव हारते आ रहे हैं. पार्टी इस बार उन पर दांव खेलने का रिस्क लेगी या नहीं यह कहना फिलहाल मुश्किल है. दूसरी वजह यह है कि कैंट से पिछली बार आम आदमी पार्टी की टिकट से चुनावी मैदान में उतरे एचएस वालिया अब अकाली दल में शामिल हो चुके हैं. तीसरी वजह यह है कि पिछले चुनावों में यहां से टिकट मांग रहे अकाली दल के पूर्व शहरी जिला प्रधान गुरचरण सिंह चन्नी और परमजीत सिंह रायपुर पार्टी को अलविदा कह चुके हैं. वहीं वर्तमान जिला प्रधान कुलवंत सिंह मन्नन की बीमारी उनके आड़े आ रही है. ऐसे में अकाली दल के दो नए चेहरे इस सीट के प्रबल दावेदारों में नजर आ रहे हैं. इनमें पहले हैं पूर्व पार्षद इकबाल सिंह ढींढसा और पूर्व डिप्टी मेयर के पति एवं पूर्व पार्षद कुलदीप सिंह ओबरॉय जो मनोरंजन कालिया की वजह से इस बार पार्षद का चुनाव नहीं जीत सके थे.
सबसे पहले बात सरबजीत सिंह मक्कड़ की करते हैं. मक्कड़ पिछले दो बार से चुनाव हारते आ रहे हैं. हालांकि 2012 में उन्हें कैंट से टिकट नहीं मिली थी लेकिन 2017 में उन्हें परगट सिंह से शिकस्त मिली. इसकी एक वजह तत्कालीन शिअद जिला प्रधान चन्नी का सपोर्ट न मिलना भी थी. इस बार चन्नी तो पार्टी छोड़ चुके हैं लेकिन नए जिला अध्यक्ष मन्नन की टीम के ज्यादातर सिपाही चन्नी खेमे के ही हैं जो कभी नहीं चाहेंगे कि मक्कड़ चुनाव जीतें और विधायक बनें. दूसरी वजह मक्कड़ का दबंग स्वभाव भी है. मक्कड़ वो शख्सियत हैं जिनसे जनता को ही नहीं बल्कि कई मीडिया वालों को भी सवाल पूछते डर लगता है. यही वजह है कि मक्कड़ के सामने जनता कुछ नहीं कहती लेकिन वोटों के जरिए मक्कड़ से बदला जरूर ले लेती है. ऐसे में अगर पार्टी मक्कड़ को टिकट देती तो वह सीट निकाल पाएंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है. हां, अगर इस दौरान मक्कड़ अपने गुस्से पर नियंत्रण करना सीख लें और जनता को एक कुशल राजनेता की तरह मधुर वाणी का एहसास कराने में कामयाब हो जाएं तो शायद मक्कड़ विजय पताका फहरा सकते हैं. खास तौर पर मक्कड़ को पत्रकारों के प्रति व्यवहार में नरमी लानी होगी.
अब बात करते हैं एचएस वालिया की. वालिया और मक्कड़ में 36 का आंकड़ा है यह हर कोई जानता है. वालिया पार्टी में जरूर शामिल हो चुके हैं लेकिन सियासत में नए हैं. हालांकि पार्टी उनके नाम पर विचार कर सकती है अगर मन्नन खेमे का सपोर्ट उन्हें मिल जाए तो.
इस सीट पर दो और दावेदार जो किस्मत आजमाने को बेकरार हैं उनमें कुलदीप सिंह ओबरॉय और सरदार इकबाल सिंह ढींढसा शामिल हैं. ओबरॉय का दावा इसलिए भी मजबूत नजर आता है क्योंकि पार्टी उन्हें डिप्टी मेयर पद से पहले ही नवाज चुकी है और विगत निगम चुनावों में ओबरॉय को टिकट नहीं देने के चलते अकाली दल को वो सीट गंवानी पड़ी थी जिस पर तकरीबन बीस साल से अकाली दल का कब्जा था. ओबरॉय के पास मीठी जुबान भी है और अपनी अलग पहचान भी. कमी है तो सिर्फ पैसे की. ओबरॉय विधानसभा चुनाव का खर्च उठा पाएंगे यह कहना फिलहाल मुश्किल है. हालांकि चुनावी फंड इकट्ठा करना ओबरॉय के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होगा.
इनके अलावा एक और मजबूत राजनेता कैंट की सीट पर अकाली दल का चेहरा बनने की काबिलियत रखता है वो है इकबाल सिंह ढींढसा. ढींढसा मक्कड़ की तरह दबंग भी हैं और ओबरॉय की तरह नरम भी हैं. पैसे की कोई कमी भी उनके पास नहीं है. ढींढसा वो शख्स हैं जिनकी टिकट अकाली दल ने काट दी थी लेकिन वह आजाद उम्मीदवार के तौर पर पार्षद का चुनाव भी जीत गए थे. ढींढसा साफ सुथरी छवि वाले नेता हैं और जनता भी उन्हें बेहद पसंद करती है. परगट सिंह को टक्कर देने में उन्हें ज्यादा मशक्कत नहीं करनी होगी.
इनके अलावा महिला नेत्री और रिश्ते में परगट सिंह की साली परमिंदर कौर पन्नू भी अकाली दल से बेहतर विकल्प हो सकती हैं. हालांकि परगट सिंह से रिश्तेदारी के चलते उन्हें पार्टी संदेह की नजर से देख सकती है लेकिन अगर पन्नू को पार्टी मैदान में उतारती है तो परगट के वोट बंट सकते हैं और दोनों परिवार आपस में ही लड़ेंगे. इससे पन्नू किसी भी कीमत पर परगट का साथ नहीं देंगी और परगट के लिए सीट निकालना बेहद मुश्किल हो सकता है. चन्नी गुट का साथ भी पन्नू को मिल सकता है. इस स्थिति में यह सीट अकाली दल की झोली में सौ फीसदी आने की संभावना है.
बहरहाल, अकाली दल किसे मैदान में उतारता है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.