जम्मू-कश्मीर

धीरे-धीरे संवर रही है सुलगते कश्मीर की तकदीर

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बदलता कश्मीर -1

जम्मू-कश्मीर से लौटकर नीरज सिसौदिया की रिपोर्ट

हसीन वादियां, बर्फीले पहाड़, कल-कल करते झरने­­ और आंखों में पलते ख्वाब। कश्मीर की तस्वीर मेरी कल्पना से कहीं बेहतर थी। आतंक और आपदा से जूझते कश्मीर में अब बदलाव नजर आने लगा है। उम्मीदों के पंखों से सपने परवाज भरने लगे हैं। विकास ने कुछ रफ्तार पकड़ी है और आतंकी दहशत भी कुछ कमजोर पड़ने लगी है मगर उम्मीदों का सफर लंबा है और बड़ा फासला तय करना है।
आम तौर पर कश्मीर के नाम से ही जेहन में दो तरह की तस्वीरें उमड़ने लगती हैं। पहली तस्वीर घिनौने आतंकवाद की तो दूसरी हसीन बर्फीली वादियों की। दोनों ही तस्वीरें कश्मीरी जिंदगी की हकीकत बयां करती हैं। समूचे हिन्दुस्तान को हसीन वादियों पर आतंक हावी नजर आता है मगर जमीनी हकीकत इससे राब्ता नहीं रखती। ऐसा नहीं है कि वादियों में आतंकी गूंज सुनाई नहीं देती मगर दहशत और सुलगते कश्मीर का एक दूसरा पहलू भी है जो बेहद हसीन है। सेना की सख्ती ने आतंक का रूख मोड़ दिया है। सीमा पार से आतंक में गिरावट आई है। हालांकि, अब आतंक की फौज हिन्दुस्तान में ही तैयार की जा रही है। आतंकियों के आका ऐसे कम पढेÞ लिखे युवाओं की भर्ती कर रहे हैं जो बेरोजगार हैं और उनका परिवार रोटी के संकट का सामना कर रहा है।
जम्मू से श्रीनगर के बीच पड़ते जिन इलाकों में कभी मोबाइल फोन किसी नामुमकिन सपने जैसा था,आज वहीं पर पूरी दुनिया अंगुलियों पर थिरकती नजर आ रही है। स्कूलों में कंप्यूटर लैब, इंटरनेट और जगह-जगह साइबर कैफे खुल गए हैं।
रामबन से कुछ पहले पहाड़ का सीना चीर कर बनाई गई नौ किलोमीटर लंबी सुरंग (टनल) ने जम्मू और रामबन की दूरी करीब दो घंटे कम कर दी है। जम्मू-श्रीनगर मार्ग की फोरलेनिंग का काम चार साल से चल रहा है। बीच में रफ्तार कुछ धीमी पड़ी थी मगर अब काम जोरों पर है। रास्ते में जगह-जगह सेना और अर्द्ध सैनिक बलों की टुकड़ियां गश्त करती नजर आती हैं। पहले आतंकवादी हमलों के बाद आतंकी मारे जाते थे मगर अब हमलों से पहले भी आतंकी पकड़े जा रहे हैं।
आतंक प्रभावित अनंतनाग जिले के डंगसीर गांव के समीर बताते हैं कि पहाड़ की दुश्वारियां कम नहीं हैं मगर जैसे-जैसे विकास घाटी का फासला तय कर रहा है, वैसे-वैसे कश्मीर के बाशिंदों को अमन की खुशबू आने लगी है। समीर आगे कहते हैं- आतंकवाद की असली जड़ बेरोजगारी और पिछड़ापन है। अगर
इसका कोई हल निकल जाए तो आतंकवाद खुद ब खुद खत्म हो जाएगा।
किश्तवाड़ के रहने वाले किशोरी लाल परिहार कहते हैं-आज के युवा को मजहब से कोई मतलब नहीं है मगर जरूरतें मजबूर कर रही हैं हथियार उठाने को। वह कहते हैं- दूरस्थ इलाकों में भी शिक्षा अपनी पहुंच बना चुकी है। अब आतंकियों के खिलाफ जनता खुद एकजुट हो रही है। यही वजह है कि आतंकियों को गिरफ्तार करने में स्थानीय लोग अब अहम भूमिका निभाने लगे हैं। इसे आतंकी दहशत के अंत का आगाज कहा जा सकता है।
हाल में हुई एक घटना का जिक्र करते हुए समीर कहते हैं कि कुछ सप्ताह पहले ऊधमपुर-श्रीनगर मार्ग पर एक घटना हुई थी। एक ट्रक में कुछ आतंकवादी श्रीनगर से जम्मू की ओर जा रहे थे। रास्ते में ट्रक एक ढाबे पर रुका और ट्रक ड्राइवर ने ढाबे वाले से 40 पराठे पैक करने को कहा। जब ढाबा मालिक ने पूछा कि आप तो दो लोग हो तो फिर 40 पराठों का क्या करोगे तो ड्राइवर संतोषजनक जवाब नहीं दे पाया। शक होने पर ढाबा मालिक ने ट्रक में रखे सामान को दिखाने को कहा। इस पर ड्राइवर तैयार नहीं हुआ तो ढाबे में मौजूद लोग खुद ही सामान देखने पहुंच गए। जैसे ही उन्होंने ट्रक में लगी तिरपाल हटाई तो अंदर आतंकी नजर आए। जब तक स्थानीय लोग मिलकर उन्हें दबोचते उससे पहले ही आतंकवादी जंगल की ओर फरार हो गए। उनमें से एक का बैग छूट चुका था। जब स्थानीय लोगों ने उस बैग को खोला तो उसमें हथियार थे। इसके बाद फरार आतंकी जंगल पार कर एक गांव में घुसे और एक घर को निशाना बनाया। यहां वह बंदूक दिखाकर खाना मांगने लगे। परिवार ने हिम्मत दिखाई और आतंकियों को चकमा देकर सेना को सूचना दे दी। इसके बाद लगभग 18 घंटे तक चली मुठभेड़ के बाद भारतीय जवानों ने सभी आतंकी मार गिराए। आतंकी दहशत के खिलाफ यह हिम्मत निश्चित तौर पर सराहनीय है।
वहीं, किश्तवाड़, अनंतनाग और रामबन के दुर्गम क्षेत्रों में किसान खेती करते हैं, पैदावार भी बेहतर होती है लेकिन मंडी तक उनकी मेहनत को पहुंचाने के साधन नहीं मिल पाते। अब सड़कें बनने लगी हैं और किसानों की मेहनत को बाजारों तक पहुंचाने के रास्ते भी खुलने लगे हैं।
प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता ने कुछ हद तक विकास को प्रभावित किया है मगर केंद्र सरकार के सौजन्य से होने वाला विकास सतत चल रहा है। पढ़े-लिखे नौजवान हथियार की जगह नौकरी तलाश रहे हैं। आतंक के खिलाफ पहली लड़ाई हम जीत चुके हैं।
समीर को भारतीय मीडिया से बड़ी शिकायत है। वह कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में जब भी कोई आतंकी वारदात होती है तो वह खबर पूरे देश में पहले पेज पर प्रकाशित की जाती है लेकिन यहां की बेरोजगारी, शिक्षा, खेती-किसानी, कढ़ाई-बुनाई और मूलभूत सुविधाओं से जू­झते कश्मीर की आवाज यहां का मीडिया दिल्ली तक नहीं पहुंचाता। वह तर्क देते हैं कि कश्मीर की दहशत की दास्तान पढ़ते ही लोग यहां आने से कतराते हैं और कश्मीर के रोजगार का एकमात्र सबसे बड़ा साधन पर्यटन उद्योग चौपट हो जाता है।
जब तक वादियों में आवाजाही नहीं बढ़ेगी तब तक यहां न तो सुविधाएं बढ़ेंगी और न ही रोजगार। इसलिए मीडिया को कश्मीर की दूसरी तस्वीर भी पेश करनी चाहिए। निश्चित तौर पर कश्मीर की फिजाओं में बदलाव की बयार बहने लगी है। मंजिलें करीब आने लगी हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि का कारवां निकल पड़ा है मंजिल की ओर। फिलहाल, बस इतना ही कह सकते हैं कि-
मंजिल मिल ही जाएगी, भटकते ही सही
गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं।
                                               …क्रमश:

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