नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
कॉर्पोरेट पॉलिटिकल फंडिंग पर अजमेर यूथ कांग्रेस अध्यक्ष और एडवोकेट राकेश शर्मा ने मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए अर्थ व्यवस्था की बर्बादी को लेकर निर्मला सीतारमण से भी कई सवालों का जवाब मांगा है.
उन्होंने कहा कि कॉरपोरेट पॉलिटिकल फ़ंडिंग सबसे ज़्यादा न सिर्फ़ मोदी के शासन काल में हुई बल्कि 90 फ़ीसदी बीजेपी को हुई. लेकिन वक्त के साथ सरकार सेलेक्टिव भी होती गई और जो प्रतिस्पर्धा निजी क्षेत्र में होनी चाहिए थी, वह सरकार की मदद से बढ़ती कंपनियों ने खत्म कर दी.
साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करने वाली निजी कंपनियों को सरकार ने ही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियो को ख़त्म करने की क़ीमत पर बढ़ाया. बीएसएनएल और जियो इसका बेहतरीन उदाहरण है.
ये सब इस हद तक खुले तौर पर हुआ कि रिलायंस ने अपनी कंपनी जियो के प्रचार प्रसार का एंबेसडर और किसी को नहीं, प्रधानमंत्री मोदी को ही बना दिया. दूसरी ओर तिल-तिल मरते बीएसएनएल के कर्मचारियों को वेतन तक देने की स्थिति में सरकार नहीं आ पाई. इसी तरह अडानी ग्रुप को बिना किसी अनुभव के सिर्फ़ सत्ता से क़रीबी की वजह से जिस तरह पोर्ट और एयरपोर्ट दिए गए, उससे भी आर्थिक विकास की प्रतिस्पर्धा वाली सोच खारिज हो गई. लेकिन सबसे व्यापक असर पड़ा नोटबंदी और जीएसटी से.
नोटबंदी ने उस असंगठित क्षेत्र की कमर तोड़ दी जो समानांतर अर्थव्यवस्था को बरकरार रखे हुए था. वहीं जीएसटी ने आर्थिक सुधार के नज़रियों को ताबूत बनाकर उस पर कील ठोंक दी. इससे इनफ़ॉर्मल सेक्टर सरकार की निगाह में आया जहां सरकार इससे वसूली करती दिखती.
वह कहते हैं कि खेती की ज़मीन का मॉनिटाइज़ेशन शुरू हुआ तो छोटे-मंझोले उद्योग धंधे भी जीएसटी के दायरे में आए. और जीएसटी की उलझन के कारण उत्पादन बाज़ार तक नहीं पहुंचा. जो बाज़ार तक पहुंचा, वह बिका नहीं. यानी आर्थिक सुधार की जो रफ़्तार देश में हर तबके को उपभोक्ता बनाकर उसकी खरीद की ताक़त को बढ़ा रही थी, उस पर ब्रेक लग गया.
उन्होंने कहा कि असंगठित क्षेत्र के 45 करोड़ से अधिक लोगों के सामने रोज़गार का संकट उभरा तो संगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के सामने ये उलझन पैदा हो गई कि वो बिना पूंजी कैसे आगे बढ़े. और इस प्रकिया में रियल एस्टेट से लेकर हर उत्पाद कारखाने में ही सिमटकर रह गया.
क्या इस बात का जवाब है मोदी सरकार के पास या निर्मला सीतारमण जी के पास ?