नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
सियासी जमीन पर सत्ता के महल यूं ही खड़े नहीं होते. ये बात शायद अब तक शिवसेना की समझ में आ चुकी होगी. महाराष्ट्र की अब तक की सियासी तस्वीर तो यही कहती है कि कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना मिलकर सरकार बनाने जा रही हैं. हालांकि अंतिम निर्णय अभी भी होना बाकी है जिसके लिए आज दिनभर बैठकों का दौर चलने वाला है. इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस की भूमिका काफी हैरान करने वाली रही है. पहले समर्थन का भरोसा दिलाना. अशोक चव्हाण और प्रथ्वी राज चव्हाण जैसे नेताओं का शिवसेना के समर्थन में बयानबाजी करना. फिर सोनिया गांधी की चुप्पी और शिवसेना की फजीहत का खेल. फिर बाद में सरकार बनाने पर सहमति जताना. शायद यह सब शिवसेना को अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए कांग्रेस ने किया हो. लेकिन क्या इस बार भी कांग्रेस पहले की तरह शिवसेना को अपने फायदे के लिए ही यूज कर रही है? यह बड़ा सवाल है.
दरअसल, शिवसेना और कांग्रेस का नाता नया नहीं है. बाल ठाकरे के समय से कांग्रेस ने हमेशा शिवसेना को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है और शिवसेना कई बार मुश्किल घड़ी में भी कांग्रेस का साथ देती नजर आई है. इमरजेंसी के दौरान जब पूरा विपक्ष इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट हो गया था तो शिवसेना इंदिरा गांधी के समर्थन में खड़ी थी. वहीं जब 1978 में जनता दल की सरकार ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था तो बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में बंद किया था. हालांकि इस बारे में यह भी कहा जाता है कि इस बंद के लिए शिवसेना को मोहरा बनाया गया था. महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण ने इसके लिए ठाकरे को मजबूर किया था. जिसके कारण ठाकरे बंद करने के लिए मजबूर हुए. तब ठाकरे को सिर्फ आधा घंटे का वक्त दिया गया था. कांग्रेस जब सत्ता में थी तो दो दशकों से भी ज्यादा समय तक वह पर्दे के पीछे से शिवसेना को समर्थन देती रही और अपने मतलब के लिए उसका इस्तेमाल करती रही. एक दौर था जब कांग्रेस के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन गले की फांस बनता जा रहा था. इस आंदोलन को दबाना कांग्रेस के सुरक्षित भविष्य के लिए बेहद जरूरी था. यहां शिवसेना काम आई. कांग्रेस ने शिवसेना को कम्युनिस्ट आंदोलन के खिलाफ मोहरा बनाया. और अपने मकसद में कामयाब भी हुई. पहले कांग्रेस ने कम्युनिस्ट आंदोलन को तोड़ने में शिवसेना की मदद ली और बाद में कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी में हिसाब चुकाने के लिए भी शिवसेना का इस्तेमाल किया जाता रहा. यही वजह थी कि एक वक्त ऐसा भी आया था जब महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंत राव नायक और वसंत दादा पाटिल के नाम पर शिवसेना को वसंत सेना भी कहा जाने लगा था क्योंकि उस वक्त शिवसेना इन्हीं के इशारे पर नाचती थी.
इसके एवज में शिवसेना को भी पूरी छूट दी जाती थी लेकिन उसे कभी इतनी छूट नहीं दी गई कि वह अपना अलग वजूद स्थापित कर ले और महाराष्ट्र पर राज कर सके. यही वजह थी कि उसे भाजपा का साथ लेना पड़ा. लेकिन यहां भी भाजपा ने उसे मोहरे की तरह इस्तेमाल किया. जब मुख्यमंत्री पद मांग उठी तो भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया.
यही वजह रही कि शिवसेना का कांग्रेस प्रेम कभी खत्म नहीं हुआ और न ही उसने एनसीपी के साथ रिश्ते खराब किए.
2007 में जब प्रतिभा पाटिल कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार घोषित की गईं तो शिवसेना ने अपने गठबंधन सहयोगी भाजपा को दरकिनार कर कांग्रेस का साथ दिया. यही नजारा उस वक्त भी देखने को मिला जब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल हुए थे. उस वक्त भी शिवसेना प्रणब मुखर्जी के साथ ही खड़ी नजर आई थी.
ऐसे कई उदाहरण हैं जब शिवसेना ने कांग्रेस के लिए एक हथियार के तौर पर काम किया था. अब देखना यह है कि बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी को महाराष्ट्र का सिंहासन नसीब होता भी है अथवा नहीं. हालांकि पहली बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे आदित्य ठाकरे के अरमान फिलहाल पूरे होते दिखाई नहीं दे रहे. बहरहाल, आज की बैठकों के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि महाराष्ट्र में सरकार का खाका क्या होगा अथवा सरकार बनेगी या नहीं?