विचार

अंतिम बार कब मनाई थी गांव में दिवाली

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वीरेन्द्र बहादुर सिंह
दशहरा होते ही दिवाली की तैयारी शुरू हो जाती है। पहले घर की साफ-सफाई, उसके बाद खरीदारी। कार्तिक कृष्णपक्ष की एकादशी से ही दिवाली का त्योहार मनाया जाने लगता है। धनतेरस से दिवाली की पूजा होने लगती है। धनतेरस, कालीचतुर्दशी और फिर दिवाली। उसके बाद प्रथमा यानी परेवा से गुजरात-महराष्ट्र में नया साल मनाते हैं और उसके अगले दिन भैयादूज। उस दिन बहन के हाथ पवित्र कर के नए साल की शुरुआत करते हैं। हमारे त्योहारों में सामाजिक संबेध इस तरह गुंथे हुए हैं कि साल के दौरान अगर संबंधों में थोड़ी ऊंच-नीच हो गई हो तो ये त्योहार हमें फिर एक बार मिला देते हैं। जीवन मेें आप दुख तो अकेले सहन कर कर सकते हैं, परंतु अगर प्रकृति आप पर मेहरबान है और खुशी आप का दरवाजा खटखटा रही है तो खुशी मनााने के लिए आपको स्वजन चाहिए, मित्र चाहिए। क्योंकि खुशी कभी अकेले नहीं मनाई जा सकती। अगर अकेला आदमी हंसता दिखई दे जाए तो लेग उसे पागल कहते हैं। हंसी तो स्वजनों और मित्रें के साथ शेयर करने की चीज है। मित्रें-स्वजनों के बिना हंसना संभव ही नहीं है।
हमारा कोई भी त्योहार और उत्सव हो, हमेशा मिलजुल कर यानी सामूहिक रूप से मनाए जाते हैं। होली और दिवाली तो त्योहारों के राजा माने जाते हैं। होली-दिवाली परं हम अपने स्वजनों और मित्रें को याद किए बिना रह ही नहीं सकते। होली-दिवाली हकीकत में अपनों के साथ मिलकर मनाने के त्योहार हैं। उसमें दिवाली की अनग ही बात है। दिवाली के साथ हमारी हर पल, हर दिन की यादें जुड़ी होती हैं और इन यादों में हमारे मित्र और स्वजन शामिल होते हैं। इसलिए जब भी दिवाली आली आती है, तब हमें अपने गांव की याद जरूर आती है। गांव की दिवाली की याद किए बिना हम रह ही नहीं सकते। दिवाली को ही लेकर गांव के बारे में एक बात प्रचलित है कि कमाने के लिए आप देश-विदेश कहीं भी गए हों, पर जैसे-जैसे दिवाली नजदीक आने लगती है, वैसे-वैसे जैसे गांव बुला रहा हो, इस तरह अंदर से अजीब तरह का खिंचाव सा महसूस होने लगता है। लगता है जैसे गांव हमें पुकार रहा है कि दिवाली आ गई है, चले आओ। बहुत कमा लिया है, कुछ दिन स्वजनों के साथ भी बिता लो। गांव की गलियां याद कर रही हैं।
शहरीकरण के इस जमाने में गांव लगभग खत्म से होते जा रहे हैं और शहर बसते जा रहे हैं। परंतु इन शहरों में रहने वालोें की पहली पीढ़ी किसी न किसी गांव से ही आई है। गांव से आने वाले लोग दिवाली आते ही बेचैन हो उठते हैं। किसी न किसी तरह ये लोग गांव जाने के लिए छटपटाने लगते हैं। छोटी सी कार में ठसोठस सामान भर कर 200-400 किलोमीटर का सफर करके ये लोग दिवाली मनाने गांव पहुंच जाते हैं। कार नहीं है तो रेलगाड़ी या फिर बस से जाने की कोशिश करते हैं। रिजर्वेशन नहीं है तो खड़े-खड़े ही चले जाते हैं। ट्रक, टेम्पों या जो भी मिल जाए, उस साधन से दिवाली के पहले गांव पहुंचने की उतावल होती है।
आज की पीढ़ी की यह बिलकुल समझ में नहीं आता कि पापा गांव में दिवाली मनाने के लिए इतना अधीर क्यों रहते हैं? जिस गांव में सुबह से ही धूल उड़ने लगती है, वहां न कोई रेस्टोरेंट है न होटल, फिल्म देखने के लिए कोई थिएटर नहीं है, शॉपिंग के लिए एसी मॉल भी नहीं है, ऐसे में वहां दिवाली का क्या मजा? जहां इलेक्ट्रिक पावर का भी ठिकाना नहीं है, नहाने के लिए पानी भी ढ़ंग से नहीं मिलता, वहां दिवाली कैसे मनाई जा सकती है। ये बातें आज की पीढ़ी के गले नहीं उतरतीं। पर इस पीढ़ी ने हमेशा अपने पिता या दादा से गांव में दिवाली मनाने की बातें जरूर सुनी हैं, जिससे उन्हें यह तो पता चल गया है कि गांव में मनाई जाने वाली दिवाली के सामने शहर में मनाई जाने वाली दिवाली एकदम फीकी होती है।
आखिर क्या होता है गांव की दिवाली में? दिवाली में साफ-सफाई तो रूटीन की बात है। पर जब उसके बाद जब दिवाली के लिए मिठाई और नमकीन बनाने की बात आती है तो उसमें पूरा घर-परिवार जुट जाता है। आज बाजार में ब्रांडेड मठिया और पापड़ उपलब्ध हैं। पर गांवों में घर में बनने वाली मठिया और पापड़ की सुगंध आज भी पुरानी पीढ़ी को तरबतर करती है। शहर के ब्रांडेड पापड़ और मठिया उनके सामने एकदम फीके लगते हैं। घरोें में आटा तैयार करके बनाई गई मठिया और पापड़ खाने में जो मजा आता था, वह आज की पीढ़ी को कहां से नसीब होगा। गुझिया पर कंगूरी डालने की कला को अब लोग भूलते जा रहे हैं। परं मुंह में रखते ही गल जाने वाली वह गुझिया और हर कौर में आने वाली इलायची की सुगंध और स्वाद आज 1200 रुपए किलोग्राम मिलने मिठाई में भी नहीं आता।
दिवाली के पहले घर के बच्चों के लिए सबसे पहला काम होता थादघर के बाहर रंगोली बनाने की तैयारी। आज की तरह या यह कह लो कि पहले रंगोली बनाने के लिए रंग तो मिलते नहीं थे, इसलिए रंगोली बनाने के लिए रंग मिट्टी रंग करतैार किए जाते थे। इसलिए अच्छी मिट्टी देख कर ले आना और फिर उसे रंग कर तैयार करना। एकादशी की रात जागरण करके, साथ में नाश्ता में वही मठिया और पापड़ की दावत उड़ाते हुए रंगोली बनाना। चचेरे भाई-बहनों के साथ रात में जाग कर बनाई जाने वाली रंगोली और फिर रात में ही किस घर की रंगोली अच्छी बनी है यह देखने के लिए घर-घर जाना, एक काबिल जज की तरह हर रंगोली में कुछ न कुछ खराबी निकाल कर अपनी ही रंगोली को अच्छी साबित करने का मजा ही कुछ अलग था। बाघद्वादस के दिन निश्चित रंगोली में बाघ का स्थान तमाम घरों के बाहर देखने को मिलता। धनतेरस को हर घर में धन की पूजा होती। इस पूजा में अंग्रेजों के जमाने का चांदी का विक्टोरिया सिक्का साल में एक बार देखने को मिलता। जिस पर पंचामृत का अभिषेक होता। कालीचतुर्दशी को गांव के बाहर बने हनुमानजी के मंदिर पर तेल चढ़ाने जाना और वहां से पुजारी तेल की कटोरी में जो सिंदूर देता, उसे घर लाकर हर दरवाजे और खिड़की पर लगाना । बड़े-बूढ़े कहते थे कि वह सिंदूर लगाने से घर में चोर नहीं आते। कालीचतुर्दशी को गांव के सभी घरों में बड़ा-पूरी और पकौड़ी बनती। पूरे दिन पकौड़ी और बड़ा की दावत चलती रहती। इसके बाद दिवाली आती, जिसकी राह हम पूरे साल से देख्ते रहते थे। शाम को पूजा होती और उसके बाद पटाखे फोड़ने का कार्यक्रम शुरू होता, जो पूरी रात चलता रहता। अगले दिन यानी परेवा को सुबह पुरोहित की आवाज सुन कर सब जाग जाते और छोटे-छोटे बच्चे नमक लेकर शगुन कराने आते। इस तरह नए साल का शगुन नमक से होता। उसके बाद नए कपड़े पहन कर गांव के बड़े-बूढ़ों के घर जाकर उनके पैर छूने का कार्यक्रम चलता, जो दोपहर तक चलता रहता। दिवाली के इन तमाम दिनों में देवदर्शन के लिए तो रोज जाना होता।
दिवाली तो आज भी मनाई जाती है, पटाखे भी फोड़े जाते हैं और मिठाई भी खाई जाती है, पर गांव की दिवाली के सामने ये सब इतने फीके क्यों लगते हैं, समझ में नहीं आता। आज की दिवाली में हमारे पास सब कुछ है, अधिक पैसा है, अधिक मित्र हैं, परंतु पहले जैसा मजा क्यों नहीं आता, यह सवाल दिवाली की रात बिस्तर पर लेटे-लेटे निश्चित दिमाग में सालता है। इसका कारण शायद यह है कि पहले जैसा निःस्वार्थ प्रेम हम खो बैठे हैं। पहले जेब खाली होती थी, पर दिल प्रेमिल भावनाओं से भरा होता था। आज भावनाएं तो यथावत हैं, पर कुछ कमी जरूर है। यह कुछ कमी क्या है, अगर इसका जवाब पता चल जाए तो फिर हमारी दिवाली फिर पहले जैसी ही आनंद वाली हो सकती है। यह कुछ कमी क्या है, इसकी खोज हर किसी को अपनी तरह से करनी होगी।

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