नीरज सिसौदिया, बरेली
जनाब नाली की सफाई नहीं हो रही जरा सफाई वाले को बोल दो, मेरे घर पानी नहीं आ रहा जरा पानी वाले को फोन कर दो, अरे सड़क कब बनवाओगे… ऐसे कई काम हैं जिन्हें लेकर जनता अपने सभासद का दिमाग खाती रहती और उस बेचारे का पूरा दिन अधिकारियों और कर्मचारियों को फोन खड़खड़ाने में ही गुजर जाता है. बात सिर्फ फोन खड़खड़ाने की होती तो भी काम चल जाता लेकिन फोन करने के बाद जब कर्मचारी आ जाते हैं तो शुरू होता है एक पार्षद का असली संघर्ष. नालियों से गाद निकलवानी हो या टूटी हुई पाइपलाइन ठीक करानी हो, पार्षद जब तक कर्मचारियों के साथ खड़ा नहीं होता तब तक कोई काम पूरा नहीं होता. वार्ड में किसी के घर गमी हो या खुशी, पार्षद हर मौके पर खड़ा नजर आता है. अपनी इन्हीं खूबियों की बदौलत बरेली शहर के कई पार्षद दशकों से लगातार वार्ड के चुनाव जीतते आ रहे हैं. जनता को इन पार्षदों का समर्पण नजर आता है लेकिन सियासी दलों को यह बिल्कुल भी दिखाई नहीं देता. भाजपा हो, समाजवादी पार्टी हो, कांग्रेस हो या फिर बहुजन समाज पार्टी, दशकों से चुनाव जीतते आ रहे पार्षदों को आज तक किसी ने पार्टी के टिकट पर विधानसभा भेजना तो दूर चुनाव लड़वाना भी जरूरी नहीं समझा. हर बार कोई पैसे वाला नेता बैकडोर से आया और टिकट लेकर विधानसभा पहुंच गया. बेशर्मी तो देखो कि उस बैकडोर वाले की रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए भी सहारा इन्हीं पार्षदों का लिया जाता है. बात अगर अपने बरेली शहर की करें तो यहां न तो कभी किसी पार्षद को विधायक का टिकट दिया गया और न ही सांसद. राज्यसभा का सपना तो भूल ही जाएं. बरेली में दो विधानसभा सीटें पड़ती हैं. पहली शहर तो दूसरी कैंट विधानसभा सीट. इन दो विधानसभा सीटों में शहर के आधे-आधे वार्ड बंटे हुए हैं. इनमें कुछ वार्डों में तो हर चुनाव में पार्षद बदलता रहता है लेकिन कुछ वार्ड ऐसे भी हैं जहां पिछले करीब बीस से तीस वर्षों से एक ही परिवार के पार्षद हैं. सीट महिला आरक्षित हुई तो पत्नी पार्षद बन गई और सामान्य हुई तो पति. इसके बावजूद पार्टी ने कभी भी इन्हें विधानसभा का टिकट देना मुनासिब ही नहीं समझा. शहर विधानसभा की बात करें तो पहले यहां से राजेश अग्रवाल विधायक बने और फिर डा. अरुण कुमार. दोनों में से कोई भी कभी पार्षद नहीं बना. अब बात करते हैं कुछ ऐसे पार्षदों की जो पिछले दो दशक से अपना वार्ड जीतते आ रहे हैं लेकिन पार्टी ने कभी उन्हें पार्षद पद से आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया. इनमें सबसे पहला नाम आता है सपा के पार्षद राजेश अग्रवाल का. राजेश अग्रवाल को दो दशक से अधिक का वक्त पार्षद बने हो गया लेकिन पार्टी ने उन्हें कभी विधानसभा का टिकट नहीं दिया. पिछली बार पार्टी ने बसपा से इंपोर्टेड उम्मीदवार को मैदान में उतार दिया और सपा कैंट से चुनाव हार गई.
दूसरा नाम है भाजपा पार्षद शालिनी जौहरी का. शालिनी कहती हैं कि राजनीति में अगर इच्छाएं न हों तो राजनीति करना बेकार है. उनके इस बयान से स्पष्ट है कि उनकी इच्छा भी विधायक बनने की है लेकिन चार बार से लगातार चुनाव जीतने के बाद भी पार्टी ने सपा छोड़कर आए डा. अरूण कुमार को विधानसभा भेज दिया. इससे उन कार्यकर्ताओं का मनोबल भी गिरा जो शालिनी जौहरी की जगह पार्षद बनने का सपना देख रहे हैं. अब जब पार्षद आगे नहीं बढ़ेगा तो कार्यकर्ता बेचारे सिवाय झंडा उठाने के कुछ कर भी नहीं पाएंगे.

वहीं इसी कड़ी में अगला नाम आता है समाजवादी पार्टी के पार्षद अब्दुल कयूम मुन्ना का. जनता के बीच मुन्ना के कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक मुस्लिम नेता होने के बावजूद मोदी लहर भी मुन्ना का कुछ नहीं बिगाड़ सकी. मुन्ना चार बार पार्षद रह चुके हैं और जनता के बीच अपनी मजबूत पकड़ का अहसास भी करा चुके हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें विधानसभा का टिकट अब तक नहीं दिया.

जब पार्षदों की उपेक्षा के बारे में मुन्ना से पूछा गया तो बोले, ‘विधायक या सांसद जमीनी स्तर पर जनता से उतना नहीं जुड़ा होता है जितना कि एक पार्षद जुड़ा होता है. जिन पार्षदों को 20-20 साल या 25-25 साल का अनुभव है अगर उन्हें पार्टी विधायकी का टिकट देती है तो उनके अनुभव का फायदा जनता के साथ ही पार्टी को भी मिलेगा और जनता व विधायक के बीच की दूरी भी कम होगी. इससे पार्टी जमीनी स्तर पर मजबूत होगी.’ मुन्ना ने इस बार शहर विधानसभा सीट से टिकट के लिए आवेदन किया है.
इसी क्रम में अगला नाम है भाजपा पार्षद सतीश चंद्र सक्सेना कातिब उर्फ मम्मा का. मम्मा का जिक्र इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि जब से नगर निगम बना तब से मम्मा या उनकी पत्नी अपने वार्ड से कोई पार्षद चुनाव नहीं हारे हैं. वे जब भी लड़़े जीत हासिल की. निगम बनने से पहले जब नगर कौंसिल में भी मम्मा चुनाव जीते थे.

मम्मा की पत्नी माया सक्सेना तो उस वक्त प्रदेश में सबसे अधिक वोटों से चुनाव जीतने वाली महिला पार्षद बनी थीं. इसके बावजूद शहर विधानसभा सीट से विधायक बनने का उनका सपना आज तक पूरा नहीं हो सका. यहां भी सपा से चुनाव हारकर आए डा. अरूण कुमार ने उनका हक मार लिया. मम्मा ने भी इस बार टिकट के लिए आवेदन किया है. हालांकि मम्मा एक बार तो पार्टी से खफा होकर विधानसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उस वक्त मम्मा को जीत हासिल नहीं हो सकी थी.
इसी प्रकार भाजपा से ही विकास शर्मा भी हैं जो कई बार से लगातार पार्षद का चुनाव जीतते आ रहे हैं लेकिन पार्टी ने उन्हें भी विधानसभा का टिकट देना जरूरी नहीं समझा.
इसी तरह बहुजन समाज पार्टी से प्रेमचंद भी दो दशक से अधिक समय से पार्षद हैं लेकिन बसपा ने उन्हें कभी विधानसभा का टिकट नहीं दिया. पिछले विधानसभा चुनाव में तो बसपा ने पैराशूट उम्मीदवार व्यापारी नेता राजेंद्र गुप्ता को टिकट दिया था. राजेंद्र गुप्ता भाजपा छोड़कर सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए ही बसपा में आए थे. चुनाव हारने के बाद उन्होंने बसपा को अलविदा कह दिया था.
इसी तरह कुछ अन्य पार्षद भी हैं जो वर्षों से वार्ड जीतते आ रहे हैं लेकिन उन्हें विधानसभा या लोकसभा का टिकट नहीं दिया गया.
दिलचस्प बात यह है कि देश के विभिन्न हिस्सों में यही पार्टियां पार्षदों को टिकट देती आ रही हैं लेकिन बरेली में आते ही पार्टियों का रवैया बदल जाता है.
बहरहाल, सियासी हवाएं अब रुख बदलने लगी हैं. पुराने पार्षदों में रोष पनपने लगा है. ऐसे में पार्टियों को भी पार्षदों के बारे में सोचना होगा. अगर अब इन पार्षदों के बारे में नहीं सोचा गया तो आने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टियों को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.