झारखण्ड

ऊपरघाट में आदिवासियों ने जंगल बचाव को लेकर निकाली रैली, बेरमो-बिष्णुगढ़ सीमांकन का बोर्ड लगाए

बेरमो/बोकारो थर्मल। कुमार अभिनंदन 
बेरमो अनुमंडल के उग्रवाद प्रभावित ऊपरघाट के काच्छो पंचायत में आदिवासियों ने जंगल बचाव को लेकर एक विशाल रैली निकाली और बुडगढ्डा, बुटबरिया, पिपरा, कौशी और आरमो (बेरमो) सीमान में साइन बोर्ड गाडी कर सीमांकन किए करते हुए भारतीत वन अधिनियम, 1927 में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन बिल का बिगुंल फूकां। रैली में आदिवासी ग्रामीण पांरपारिक हथियार तीर-धनुष, फरसा, तलवार से लैंस थे। महिलाएंें मादर और ढाक के ताल पर थिरकते हुए सीमांकन स्थल पहुंच रहें थे। बरेमो सीमांकन में आयोजित जन समूह को संबोधित करते हुए झारखंड जंगल बचाव आंदोलन के जोनल प्रभारी राजेश महतो ने कहा कि भारतीत वन अधिनियम, 1927 में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन को लेकर आदिवासी समुदायों में रोष की चिंगारी सुलग रही है। जिस तरह आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का देश भर में विरोध हुआ। ठीक उसी तरह झारखंड में बीते कुछ माह से भारतीत वन अधिनियम 1927 में केंद्र सरकार के द्वारा प्रस्तावित संशोधन का विरोध हो रहा है।

भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन का प्रस्ताव इस कानून को आदिवासियों के खिलाफ प्रयोग हेतु और खतरनाक बनाना है। संशोधन की नीयत साफ है कि जंगलों को सरकार देखरेख के नाम पर थर्ड पार्टी यानी अंबानी-आडानी को देगी। कहा कि संशोधन के बाद इस कानून के तहत जंगलों का पूरी तरह से केंद्रीयकरण हो जाएगा और जंगलो से आदिवासियों की निर्भरता को समाप्त कर दिया जाएगा। इन लोगों के अनुसार विरोध की वजह यह भी है कि इस कानून के तहत ग्रामसभा के अधिकारों को खत्म किया जा रहा है, क्योंकि प्रस्तावित संशोधन में ग्राम सभा का जिक्र नहीं है। जबकि वन अधिकार अधिनियम 2006, ग्रामसभा को जो शक्ति प्रदान करता है उसके तहत वनवासियों को जंगलों पर काफी अधिकार प्राप्त हैं। प्रस्तावित संशोधन से भारतीय वन अधिनियम 1927, आदिवासियों के लिए पहले से और सख्त हो जाएगा। जोनल प्रभारी ने कहा कि झारखंड को एक और बिरसा मुंडा की जरूरत है। यह कानून पूरी तरह से जनविरोधी कानून है। इसे अंग्रेजों ने इसीलिए बनाया था कि ताकि वो जंगलों से आदिवासियों को बेदखल कर उसे अपने कब्जे में ले सकें। अब वही काम भारत सरकार करना चाहती है। प्रंखड प्रभारी रतिराम किस्कू ने कहा कि इस ब्रिटिश कानून को खत्म करने की मांग इसके अस्तित्व में आते ही होने लगी थी। बिरसा मुंडा ने 1896-97 में इस कानून के खिलाफ आंदोलन किया था। इसके उन्मूलन लिए उठी आवाज का नतीजा था कि इसी के अनुरूप वन अधिकार अधिनियम 2006 बनाया गया और इससे एक बार फिर से जंगलों पर आदिवासियों और वनवासियों का अधिकार स्थापित हुआ, जिसे मौजूदा सरकार छीनना चाहती है।

जोनल प्रभारी ने कहा कि झारखंड में जिस जल जंगल जमीन के लिए बिरसा मुंडा ने आंदोलन और संर्घष किया वो तब की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ था। लेकिन लोगों का मानना है कि केंद्र अग्रेजों के द्वारा बनाया गया भारतीय वन अधिनियम 1927 ही था, जिसे आज भारत सरकार आदिवासियों के खिलाफ और सख्त बना रही है। जन सभा को जिला प्रभारी रतिराम किस्कू, आंदोलन के संपादक प्रकाश भुईया ने उपस्थित जनसमूह को वन अधिकार कानून 2006 नियम 2008 के संशोधन नियम 2012 धारा 3/1/झ एवं 5 के तहत विस्तारपुर्वक जानकारी दी। बोर्ड गाडी के पश्चात नायके के द्वारा मुर्गें की बलि दी गयी। जनसमूह सह साइन बोर्ड गाडी समारोह में मुख्य रूप से आरमो के मुखिया मणिराम मांझी, वन अधिकार समिति के सचिव संगीता देवी, अध्यक्ष रामचंद्र हेम्ब्रम, मोतीलाल बेसरा, मुकेश मुर्मू, बुधन हांसदा, रामकुमार किस्कु, बिनोद मुर्मू, बहामुनी देवी, तालो देवी, हराधन मुर्मू, नायके घनुलाल मांझी सहित हजारों आदिवासी महिला-पुरूष शामिल थे।

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