हर घर खुशियां छाने दो.
कोरोना को जाने दो.
कितनी गाली खाता है
फिर भी दूर न जाता है.
सारे तुझको बुरा कहें
फिर भी भू पर छाता है.
नहीं बुलाया लेकिन तू
बेशर्मी से आता है.
उल्टी बातें सुनना ही
शायद तुझको भाता है.
झूठा- कपटी कोरोना
राग गमों के गाता है.
हंसी लवों पर आने दो.
कोरोना को जाने दो…
लोग घरों में बंद दिखे
सड़कों पर हम नहीं चले.
छात्र परेशां हैं सारे
क्योंकि कालेज नहीं खुले.
गलियां सूनी- सूनी हैं
कैसे कोई चीज़ बिके.
देख दूसरे मानव को
सारे दीखे डरे- डरे.
सुस्ती आई जाती है
खाली घर में पड़े- पड़े.
गीत आज कुछ गाने दो.
कोरोना को जाने दो…
नहीं पड़ोसी दिखते अब
हाथ नहीं ये मिलते अब.
प्रश्न उठ रहे दर्जी के
क्योंकर कपड़े सिलते अब.
कमी गैस की क्या आई
गुब्बारे कम फुलते अब.
सन्नाटे के जंगल में
कदम सभी के रुकते अब.
सब बुजुर्ग अब कहां छिपे
आगे जिनके झुकते अब.
नया- नया कुछ पाने दो.
कोरोना को जाने दो…
नहीं बैठते मोची जी
महंगी बिकती गोभी जी.
कितना भी अच्छा खेलो
बिदकी जाती गोटी जी.
मुंशी जी खाली सोचें
नहीं पकड़ में दोषी जी.
बिना स्वाद के लगती है
रोज वही फिर रोटी जी.
पतले लड़के मोटे तो
दुबली लड़की मोटी जी.
मनमाफिक कुछ भाने दो.
कोरोना को जाने दो…
– इंद्रदेव त्रिवेदी
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