नीरज सिसौदिया, बरेली
पंचायत चुनाव में भगवा ब्रिगेड को धूल चटाने वाली समाजवादी पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं. यही वजह है कि पंचायत चुनाव के नतीजे निकलते ही सपा ने विधानसभा चुनाव की तैयारी तेज कर दी. वैसे तो विधानसभा चुनाव में काफी वक्त है लेकिन कोरोना के चलते जीत उसी की झोली में आएगी जो अभी से तैयारी में जुट जाएगा. यह बात सपा हाईकमान भी अच्छी तरह से जानता है. यही वजह है कि पार्टी के आला नेता अभी से ही उन फैक्टर्स का अध्ययन करने में जुट गए हैं जो इस बार चुनाव को प्रभावित करेंगे. इन्हीं फैक्टर्स के आधार पर ही प्रत्याशी चुने जाएंगे.
अब बात करते हैं बरेली कैंट विधानसभा सीट की. जब से यह सीट अस्तित्व में आई है तब से इस पर भाजपा का ही कब्जा रहा है. समाजवादी पार्टी को हमेशा इस सीट पर हार का सामना ही करना पड़ा है. इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि सपा द्वारा यहां से हमेशा पैराशूट उम्मीदवार ही उतारा गया. वर्ष 2012 में इस सीट से सपा के तत्कालीन महानगर अध्यक्ष डा. मो. खालिद प्रबल दावेदार थे लेकिन उनकी उपेक्षा कर फहीम साबिर को मैदान में उतार दिया गया. डा. खालिद का अरमान टूटा तो उन्होंने अंदरखाने भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल का सपोर्ट किया और बड़ी तादाद में मुस्लिम वोट डायवर्ट हो गया. डा. खालिद की नाराजगी और राजेश अग्रवाल के सियासी कद ने सपा की हार सुनिश्चित कर दी.

वर्ष 2017 में महागठबंधन हुआ और कैंट सीट कांग्रेस के खाते में चली गई. नवाब मुजाहिद महागठबंधन के उम्मीदवार बनाए गए और डा. खालिद का सपना फिर टूट गया. नवाब मुजाहिद के पक्ष में मुस्लिम एकजुट नहीं हुए और राजेश अग्रवाल फिर चुनाव जीत गए.
अबकी बार सियासी समीकरण बदलते नजर आ रहे हैं. जिला पंचायत चुनाव में भाजपा की हार और कोरोना काल में जनता को हो रही परेशानियों ने सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का माहौल बना दिया है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि समाजवादी पार्टी को एकतरफा जीत मिल ही जायेगी. मुकाबला अभी भी कड़ा होगा. सपा को जीत मिल सकती है पर इसके लिए दो काम सपा को करने होंगे. पहला मुस्लिमों को एकजुट करना और दूसरा हिंदुओं को तोड़ना. सपा के समक्ष संकट यह है कि उसके कई हिंदू नेता टिकट के लिए दावा ठोक चुके हैं. इनमें सपा के महानगर महासचिव और पार्षद गौरव सक्सेना, पंडित विष्णु शर्मा और पूर्व मेयर आईएस तोमर जैसे नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं. इनमें आईएस तोमर बड़ा नाम है मगर कैंट सीट में जाट बिरादरी लगभग दस प्रतिशत से भी कम है. ऐसे में तोमर ने तो मुस्लिम वोट हासिल कर सकेंगे और न ही हिन्दू. गौरव सक्सेना कायस्थ हैं. कुछ कायस्थों और बनिया वोट बैंक साध सकते हैं मगर मुस्लिम मोर्चे से पार पाना फिलहाल उनके लिए टेढ़ी खीर है. विष्णु शर्मा ब्राह्मण वादी कहे जा सकते हैं और काफी हद तक ब्राह्मण वोट साध भी सकते हैं. मोदी विरोध में तो उन्हें महारथ हासिल है मगर मुस्लिम मोर्चा साधना उनके बूते का फिलहाल नजर नहीं आता. इन सबके अलावा राजेश अग्रवाल के रूप में पार्टी के पास एक और बड़ा चेहरा है मगर राजेश अग्रवाल की चाहत शहर विधानसभा सीट है. वहां राजेश अग्रवाल की पकड़ भी है. अगर उन्हें कैंट से उतारा जाता है तो मुस्लिम नाराज हो जाएंगे और फायदा कांग्रेस ले जाएगी. कांग्रेस से हाजी इस्लाम बब्बू का टिकट कैंट सीट से लगभग तय माना जा रहा है. जनता जानती है कि कांग्रेस इस बार सरकार बनाने की स्थिति में कतई नहीं है. वह जानती है कि भाजपा का विकल्प सिर्फ सपा हो सकती है. इसलिए मुस्लिम वोट सपा से तब तक नहीं टूटेगा जब तक सपा मुस्लिमों की उपेक्षा नहीं करेगी. अगर सपा ने कैंट से मुस्लिम चेहरे को टिकट दिया तब तो मुस्लिम वोट सपा की झोली में आएंगे वरना सारे वोट बब्बू ही ले जाएंगे. इन परिस्थितियों में सपा को एक ऐसा मुस्लिम चेहरा मैदान में उतारना होगा जो अंसारी बिरादरी से हो और मुस्लिमों के साथ ही हिन्दुओं में भी गहरी पैठ रखता हो. चूंकि सपा के महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी भी मुस्लिम हैं, इसलिए वह भी हिन्दू वोट नहीं खींच सकते. वहीं, जिला अध्यक्ष अगम मौर्या हिन्दू जरूर हैं पर उनका वजूद आंवला तक ही सीमित है. बरेली में वह कोई करिश्मा करने में सक्षम नहीं हैं. सपा के पूर्व महानगर अध्यक्ष डा. मो. खालिद अगर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी में शामिल नहीं हुए होते तो वह सपा के लिए मजबूत उम्मीदवार हो सकते थे. डा. खालिद अंसारी बिरादरी से भी हैं और हिंदुओं के बीच गहरी पैठ भी रखते हैं. उनके करिश्माई व्यक्तित्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वह डिप्टी मेयर का चुनाव लड़ रहे थे तो उनका मुकाबला भाजपा नेता गुलशन आनंद से था. उस वक्त बहुमत भाजपा के पास था और सपा के पास महज तीन-चार वोट ही थे लेकिन डा. खालिद ने ऐसा खेल खेला कि सारे भाजपाई वोट उनके पाले में आ गए और गुलशन आनंद को पटखनी देकर डा. खालिद डिप्टी मेयर बन गए.

डा. खालिद का एक और प्लस प्वाइंट यह भी है कि भाजपा में कैंट सीट के जो दो प्रबल दावेदार हैं उन दोनों से ही डा. खालिद के अच्छे संबंध हैं. एक दावेदार तो डा. खालिद को सुनील बंसल तक से मिलवा चुका था और उन्हें संवैधानिक पद तक दिलाने जा रहा था मगर डा. खालिद ने शिवपाल यादव का साथ छोड़ना ठीक नहीं समझा. वहीं, दूसरे दावेदार की पिछले चुनावों में लगातार डा. खालिद मदद करते आ रहे हैं. ऐसे में अगर डा. खालिद सपा से उम्मीदवार बनते तो भाजपा के जिस दावेदार को टिकट नहीं मिलता वह खुद ब खुद डा. खालिद का सपोर्ट करता. भाजपा के प्रबल दावेदार का सपोर्ट मिलता तो हिन्दू वोट टूटता और हिन्दू वोट टूटता तो सपा कैंट सीट जीत जाती. लेकिन चूंकि डा. खालिद अब सपा में नहीं हैं इसलिए सपा को एक ऐसा मुस्लिम चेहरा तलाशना होगा जो हिन्दू वोट तोड़ सके. फिलहाल ऐसा कोई बड़ा मुस्लिम चेहरा सपा में नजर नहीं आता.