नीरज सिसौदिया, बरेली
कोरोना काल में जहां अपने भी अपनों से दूरी बना रहे हैं, कहीं ऑक्सीजन और दवाओं की कालाबाजारी हो रही है तो कहीं अस्पतालों में लूट खसोट की खबरें आ रही हैं, ऐसे में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानवता की मिसाल पेश कर रहे हैं. उनके दर से कोई भी जरूरतमंद खाली हाथ नहीं लौटता. वह न तो अंबानी हैं और न ही अडाणी. वह अरबों की संपत्ति के मालिक भी नहीं हैं, फिर भी रोजाना दर्जनों जरूरतमंदों का सहारा बन रहे हैं. किसी को दो वक्त की रोटी दे रहे हैं तो किसी को महीने भर का राशन. यह उनकी सेवा का जज्बा ही है जो पिछले लगभग एक माह से बरेली के जरूरतमंद लोगों का न सिर्फ पेट भर रहे हैं बल्कि ऑक्सीजन से लेकर अस्पताल का बिल तक भर रहे हैं. वह न तो विधायक हैं, न सांसद और न ही मंत्री या मेयर अथवा पार्षद. फिर भी अपने दम हर रोज जरूरतमंद लोगों की मदद कर रहे हैं. हम बात कर रहे हैं मेडिकल की कोचिंग के लिए मशहूर ओमेगा क्लासेज के डायरेक्टर मो. कलीमुद्दीन की जिन्हें लोग प्यार से ‘कलीम सर’ कहकर पुकारते हैं.
मो. कलीमुद्दीन वैसे तो नवाबगंज के एक छोटे से गांव के रहने वाले हैं लेकिन बरेली को उन्होंने अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना है. वैसे तो वह समाजवादी पार्टी के पदाधिकारी भी हैं लेकिन एक नेता से ज्यादा उनकी पहचान उनके समाजसेवा के कार्यों की वजह से है. बड़े-बड़े नेता जहां इन दिनों घरों में दुबके हुए हैं वहीं कलीमुद्दीन जान हथेली पर रखकर लोगों की मदद करते आसानी से नजर आ जाते हैं. जान हथेली पर रखने की बात इसलिए क्योंकि हाल ही में वह खुद भी कोरोना की चपेट में आ गए थे. लेकिन कोरोना को मात देकर फिर से समाजसेवा में जुट गए. हाल ही में वह एक जरूरतमंद का अस्पताल का 11 हजार रुपये का बिल अदा करके सुर्खियों में आए थे. मॉडल टाउन में चल रहे ऑक्सीजन के लंगर में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया.
मोहम्मद कलीमुद्दीन की सराहना इन दिनों राशन वितरण को लेकर हो रही है. मुंशी नगर कार्यालय को कलीमुद्दीन ने राशन के गोदाम में तब्दील कर दिया है. वहां अपने भतीजों के साथ बैठकर कलीम सर राशन के पैकेट बनाते आसानी से देखे जा सकते हैं. राशन की यह मुफ्त दुकान हर किसी के लिए खुली है. फिर चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान.
मो. कलीमुद्दीन कहते हैं, ‘राशन लेने वाला शंकर है या सलीम, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उनकी नजर में सब इंसान हैं. जब सरकार की ओर से लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई. प्रतिष्ठान बंद हुए और कामकाज ठप हुए तो उनमें काम कर गुजारा करने वाले सड़क पर आ गए. हालात इतने बदतर हो चुके थे कि रोज मांगकर पेट भरने वाले बदनसीब भी दाने-दाने को मोहताज हो गए. इन बेबसों की हालत देखकर ही मैंने इनकी मदद करने की ठानी.’ पिछले साल भी लॉकडाउन में उन्होंने जरूरतमंदों की मदद की थी. पहले सौ-डेढ़ सौ लोगों को खाना बांटा. फिर संख्या पांच सौ हुई और बाद में यह आंकड़ा एक हजार के पार जा पहुंचा पर कलीम सर ने कदम पीछे नहीं खींचे. इस सेवा के कार्य में उन्हें अपने साथियों और पार्टी नेताओं का नैतिक समर्थन मिला.
कलीमुद्दीन बताते हैं, ‘लॉकडाउन में लोगों का रोजगार छिन गया. जो सक्षम थे उनका गुजारा तो जैसे-तैसे चल रहा है पर जो रोज कमाने खाने वाले थे वे दाने-दाने को मोहताज हो गए. ऐसे लोगों की मदद के उद्देश्य से ही हमने सेवा का कार्य शुरू किया है. इसके तहत रोजाना लोगों को राशन वितरित किया जाता है. साथ ही लोगों को ऑक्सीजन, दवाएं आदि जरूरत के सामान भी मुहैया कराए जाते हैं. पिछले लगभग डेढ़ माह से सेवा का यह कार्य किया जा रहा है. सभी लोगों का इसमें पूरा सहयोग मिल रहा है. कोशिश है कि जब तक कोरोना संकट पूरी तरह से खत्म नहीं होता तब तक जरूरतमंदों को रोटी का संकट न झेलना पड़े.’
कलीमुद्दीन वैसे तो मुस्लिम हैं लेकिन बात जब सेवा की आती है तो वह धर्म को किसी कोने में रख देते हैं. वह राशन बांटते समय हिन्दू और मुस्लिम नहीं देखते. वह कहते हैं, ‘हिन्दू हो या मुस्लिम, भूख सभी को लगती है. हिन्दू का पेट भी उसी रोटी से भरता है जिस रोटी से मुस्लिम का पेट भरता है. जब बनाने वाले ने हममें कोई भेद नहीं किया तो फिर हम कौन होते हैं उसके बंदों में भेद करने वाले. हमारा सिर्फ एक ही धर्म है और वह है समाजसेवा. जो समाजसेवा धर्म देखकर की जाए वह समाजसेवा नहीं बल्कि दिखावा है. अल्लाह हमें इसकी इजाजत नहीं देता.’
बहरहाल, कलीमुद्दीन का सेवा का यह जज्बा दुनिया के लिए एक मिसाल है. अगर समाज का हर संपन्न और सक्षम नागरिक कलीम सर की तरह सोचने लगे तो निश्चित तौर पर हिन्दुस्तान में न तो कभी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर दंगे होंगे और न कोई भी इंसान भूखा सोने को मजबूर होगा.