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नए साल में नए रंग में दिखेगी बरेली की सियासत, दलों को मिलेंगे नए अध्यक्ष, 2027 की तैयारी पकड़ेगी जोर, जानिए क्या-क्या होगा नए साल में?

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नीरज सिसौदिया, बरेली
वर्ष 2024 में भले ही बरेली की राजनीति में कुछ खास देखने को न मिला हो लेकिन 2025 में ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला। 2025 में प्रमुख दलों की संगठनात्मक मजबूती ही उनकी हार-जीत का आधार तैयार करने वाली है। जिसका संगठन जितना मजबूत होगा वह पार्टी उतनी ही बड़ी जीत हासिल कर पाएगी। नए साल में बरेली की सियासी तस्वीर एकदम बदलने वाली है। भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को नए अध्यक्ष मिलने वाले हैं। वहीं, वर्ष 2027 का शंखनाद भी आधिकारिक तौर पर इसी वर्ष हो जाएगा। बिलों में दुबके सियासी मेढक भी चुनावी बरसात का आनंद लेने इसी साल बाहर निकलने की तैयारी में हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि 2027 की शुरुआत में ही विधानसभा चुनाव होने हैं और इस बार 2026 की शुरुआत में ही चुनावी लड़ाई उफान पर नजर आने वाली है। 2024 में लोकसभा चुनाव, कुछ प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनाव और यूपी में हुए उपचुनाव के बाद अब सभी दलोें का फोकस यूपी विधानसभा चुनावों पर है। दो प्रमुख विपक्षी दलों ने अपनी अगली रणनीति पर अमल शुरू भी कर दिया है।
2025 में सभी प्रमुख दलों का नया संगठन अस्तित्व में आ जाएगा। इसके बाद नए सिरे से नई सियासी रणनीति पर काम तेज हो जाएगा। समाजवादी पार्टी ने आक्रामक रूख से भाजपा पर दबाव बनाने की ठानी है। साथ ही वह अपने आजमाए हुए पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले को ही नीतिगत आधार बनाकर आगे बढ़ने जा रही है। चूंकि चुनावी साल में चुनावी तैयारियों के साथ पीडीए परिवार का दायरा बढ़ाना आसान नहीं होगा इसलिए सपा के पास पीडीए की रणनीति पर अमल करने के लिए एकमात्र 2025 ही रह जाएगा। यह फार्मूला सपा के पुराने जनाधार एम-वाई (मुस्लिम- यादव) को कुछ बढ़ा कर उसमें दलित वर्ग को जोड़ने की कोशिश है। लोकसभा चुनाव में सपा की अप्रत्याशित जीत की सबसे बड़ी वजह भी पार्टी इसी फार्मूले को मानती है। वर्तमान में सपा के 20 सांसद पिछड़ा वर्ग से, 8 दलित और 4 मुस्लिम हैं, जबकि 5 सामान्य वर्ग से हैं। माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी बरेली में भी टिकट वितरण इसी फॉर्मूले पर करेगी। खास तौर पर उन सीटों पर जहां वो अब तक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार उतारती आ रही है। इनमें महानगर और कैंट विधानसभा सीटें प्रमुख हैं। हालांकि हाल ही में प्रदेश में हुए उपचुनाव में सपा को इस फॉर्मूले से ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ, लेकिन इसका दोष भी वे सरकारी अधिकारियों को देते हैं। अखिलेश यादव ने स्पष्ट रूप से कहा था कि अगर उपचुनाव में सामान्य वर्ग के अधिकारियों की जगह पीडीए के अधिकारी तैनात किए होते तो नतीजा कुछ और ही होता।
जहां तक भाजपा का सवाल है, बरेली में भाजपा के दो दिग्गजों की लड़ाई कुछ नए समीकरण बना सकती है। भाजपा में सांगठनिक बदलाव से यह काफी हद तक स्पष्ट हो जाएगा कि बरेली में भाजपा का सबसे ताकतवर नेता कौन है। महानगर अध्यक्ष का चयन नई तस्वीर पेश करेगा। हालांकि, प्रदेश की तरह ही भाजपा यहां भी अपराध नियंत्रण को ही अपना सबसे मजबूत पक्ष मान रही है। वैसे भी, संभल में हिंसा के बाद जिस तरह तेजी से घटनाक्रम बदला है, उसने योगी की छवि समाज के उच्च वर्ग में और मजबूत की है। उपचुनाव में मिली सफलता का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है। उनका “बंटेंगे तो कटेंगे” का नारा अभी भी चल रहा है।
कांग्रेस की बात करें तो बरेली में कांग्रेस को भी नया जिला अध्यक्ष और महानगर अध्यक्ष मिलने जा रहा है। कांग्रेस ने कुछ दिन पहले ही यूपी की सभी इकाइयां भंग कर दी थीं। सपा और भाजपा में भी यह बदलाव देखने को मिलेगा। इन दलों में जो भी बदलाव होना है वह 14 जनवरी यानि मकर संक्रांति के बाद ही होगा, खास तौर पर भाजपा में।
इसके अलावा टिकट के दावेदारों की जंग भी तेज होगी। सपा में वर्ष 2024 में पिछली बार के टिकट के प्रबल दावेदार रहे डॉक्टर अनीस बेग और शहर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने वाले राजेश अग्रवाल ही सबसे अधिक सक्रिय दावेदार नजर आए। साल के अंत में प्रवीण सिंह ऐरन और सुप्रिया ऐरन ने भी एंट्री मारी। लेकिन बाकी दावेदार अब भी सोए हुए हैं जिनके 2025 में जागने के कयास लगाए जा रहे हैं।
वहीं, भाजपा में कैंट विधानसभा सीट पर इस बार दावेदारों की भीड़ कम ही नजर आएगी। इसकी वजह साफ है कि कैंट की लड़ाई अब पूरी तरह विधायक संजीव अग्रवाल और मेयर उमेश गौतम पर आकर टिक गई है। हां, शहर विधानसभा सीट पर नजारा इसके उलट होगा। यहां वन राज्य मंत्री अरुण कुमार के रिटायर होने की संभावनाओं के बीच कई नेता सियासी जमीन तलाश रहे हैं। इनमें डॉ. विनोद पागरानी, पार्षद सतीश चंद्र सक्सेना कातिब उर्फ मम्मा, अतुल कपूर, अधीर सक्सेना जैसे कई नेता शामिल हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि उमेश गौतम की निगाहें भी इस सीट पर हैं। वह शहर सीट को विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। चूंकि संजीव अग्रवाल मौजूदा विधायक हैं और संगठन में गहरी पकड़ रखते हैं, इसलिए कैंट से उनका टिकट काटना लगभग नामुमकिन होगा। ऐसे में मेयर खाली हाथ न रह जाएं, इसलिए उनकी नजर शहर विधानसभा सीट पर भी बताई जा रही है और उनका तीसरा विकल्प बिथरी सीट को भी माना जा रहा है क्योंकि वह ब्राह्मण सीट है।
कांग्रेस में वैसे तो दावेदारों की कमी नहीं है लेकिन ‘गुरु जी’ ही दोनों सीटों पर दावा ठोकने की तैयारी में हैं। हालांकि, शहर सीट पर प्रेम प्रकाश अग्रवाल पार्टी का पुराना चेहरा रहे हैं। इसलिए उनकी दावेदारी को भी दरकिनार करना मुश्किल होगा। गुरुजी के नाम से जाने जाने वाले केबी त्रिपाठी नवंबर माह में उस वक्त ज्यादा सुर्खियों में जब वह पंडित नेहरू की प्रतिमा स्थापित करने की मांग को लेकर अनशन पर बैठे थे। फिलहाल तो कांग्रेस में यही दो चेहरे दिखलाई पड़ते हैं।
बहरहाल, 2025 में बरेली की सियासत बेहद दिलचस्प मोड़ पर नजर आएगी और आगामी विधानसभा चुनाव का आधार भी इसी साल तैयार होगा।

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