कोठियों ने उजाड़े यहाँ घोंसले, हाय पक्षी बसेरा कहाँ पर करें
पेड़ काटे गए आज इतने अधिक, ऑक्सीजन बिना वे तड़पकर मरें।
ऐंठ मेंआज मानव भरा खूब है, क्यों मलिन कर रहा हाय पर्यावरण
रेडियोधर्मिता बढ़ गयी है यहाँ, भूत अब वायरस का करे जागरण
लोग उल्लू यहाँ अब बनाने लगे, इसलिए सामने आ रहा है मरण
हो गया अब घिनौना यहाँ इस कदर, हम समझते जिसे स्वच्छ वातावरण
हाय पक्षी यहाँ पर न चूँ-चूँ करें, किसलिए याद फिर आज उनको करें
पेड़ काटे गए आज इतने अधिक, ऑक्सीजन बिना वे तड़पकर मरें।
रोग से हम भला अब लड़ें किस तरह, जब सभी वस्तुओं में यहाँ खेल हो
आज भोजन बहुत हानिकारक हुआ, इसलिए क्यों न अब हाय दिल फेल हो
अब मिलावट करें लोग इतनी अधिक, पर न उनको कभी भी यहाँ जेल हो
तिकड़मों का यहाँ दौर ऐसा चला, झूठ का सत्य से अब बहुत मेल हो
अब वनों में घटे जानवर हैं बहुत, निर्दयी हाय उन पर रहम क्यों करें
पेड़ काटे गए आज इतने अधिक, ऑक्सीजन बिना वे तड़पकर मरें।
आज तालाब भी हैं बहुत कम हुए, झील लीलौर अपनी कहानी कहे
भूख से प्यास से जीव आहें भरें, सज्जनों के भला क्यों न आँसू बहे
पास पैसा न हो एक भी जबअगर, वह कभी भी सुरक्षित न घर में रहे
हाय अच्छे दिनों के हवाई किले, दुर्दिनों में यहाँ वे सभी हैं ढहे
कूटनीतिक मुखोटे बनाए गए, जो हुए आज लाचार वे क्या करें
पेड़ काटे गए आज इतने अधिक, ऑक्सीजन बिना वे तड़पकर मरें।
रचनाकार – उपमेंद्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’, बरेली (उ.प्र.)
मो०-9837944187