नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
लोकसभा चुनाव में देशभर में मिली प्रचंड जीत और बंगाल में मिले जन समर्थन के बाद भाजपा अब उन राज्यों में अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है जहां अब तक घटक दल उस पर हावी नजर आ रहे थे. ऐसे में माना जा रहा है कि पंजाब में पिछले काफी अर्से से अकाली दल की अंगुली थाम कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाली भारतीय जनता पार्टी अब अपने दम पर सत्ता का सफर तय करने का सपना देख रही है.
दरअसल, अकाली दल और भाजपा के नेताओं में पिछले काफी समय से समन्वय का अभाव देखने को मिल रहा है. बात अगर सत्ता की करें तो यहां अकाली दल ने कभी भाजपा को हावी नहीं होने दिया. यही वजह रही कि भाजपा यहां अब तक अपना अलग वजूद स्थापित नहीं कर सकी. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में संघ के बढ़ते कदमों और लोकसभा चुनाव में देशभर में भाजपा की जीत ने लोगों का नजरिया भी बदल दिया है.

सियासी जानकारों की मानें तो भाजपा यहां वो रणनीति अपनाने जा रही है जो उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए मायावती ने अपनाई थी. जानकार बताते हैं कि भाजपा यहां दलित कार्ड खेलने की तैयारी कर रही है. अगर वह दलितों को एकजुट कर ले तो उसकी राह बेहद आसान हो सकती है.
दरअसल, पंजाब में सबसे अधिक वोट दलितों के हैं. मायावती को यूपी का सिंहासन दिलाने वाले कांशीराम भी पंजाब से ही ताल्लुक़ रखते थे. हर चुनाव में दलित बिखरते रहे और बंटते रहे. यही वजह रही कि सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद उन्हें सरकार में होने के बावजूद कुछ पदों से ही संतोष करना पड़ा. सत्ता में चाहे कांग्रेस रही हो या अकाली-भाजपा गठबंधन पर मुख्यमंत्री का पद कभी किसी दलित के खाते में नहीं गया. कभी प्रकाश सिंह बादल, कभी कैप्टन अमरिंदर सिंह तो कभी बेअंत सिंह के सिर पर मुख्यमंत्री का ताज सजा. दलित हमेशा पीछे की कतार में ही खड़ा नजर आया. यही वजह रही कि पंजाब के दलित आज भी आगे नहीं बढ़ सके. पंजाब के दलित समाज के इस दर्द को भाजपा समझ चुकी है. जो आज तक नहीं हो सका उसे अब करने का बीड़ा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने उठाया है. इसके लिए सबसे पहले जरूरत थी एक ऐसे चेहरे की जिसके दामन पर कोई दाग न हो और वह पैदायशी सियासतदान भी न हो. मगर सियासत की समझ रखता हो. ऐसे में हंसराज हंस के रूप में एक दलित नेता उन्हें मिल गया. ये वही हंस हैं जो कभी अकाली दल को गुड बाय बोलकर कांग्रेस में चले गए थे. मोदी व शाह से हंस की नजदीकियां आज की नहीं हैं बल्कि उस वक्त की हैं जब गुजरात में सुनामी आई थी और मोदी के कहने पर हंस ने करोड़ों रुपये की मदद सुनामी और भूकंप प्रभावित लोगों के लिए दान में दी थी. हंस और शाह की नजदीकियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बादल की नाराजगी को दरकिनार कर उन्होंने न सिर्फ हंस को भगवा ब्रिगेड का हिस्सा बनाया बल्कि उनके लिए केंद्रीय सफाई कर्मचारी आयोग में वाइस चेयरमैन का पद भी बना डाला. इस तरह पद्मश्री हंसराज हंस का नाम इतिहास में केंद्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के पहले वाइस चेयरमैन के तौर पर दर्ज हो गया.
बात यहीं पर खत्म नहीं होती. वाइस चेयरमैन बनने के बाद उन्हें दिल्ली की उस सीट से लोकसभा चुनाव में मैदान में उतार दिया गया जहां से उदित राज जैसा चेहरा भाजपा से ही सांसद था. इतना ही नहीं उदित राज की नाराजगी को भांपते हुए पार्टी ने हंस को जिताने के लिए पूरी ताकत झोंक दी. नतीजतन जो काम अकाली दल में रहकर हंस नहीं कर पाए वह काम भाजपा में जाकर पहली बार में ही कर गये. इसके बाद पंजाब में लोकसभा चुनाव के दौरान और भाजपा की जीत के बाद जिस तरह से पंजाब भर में हंस की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है उससे निकट भविष्य में हंस की कद बढ़ने की संभावनाओं को भी बल मिला है. सियासी जानकार मानते हैं कि भाजपा हंसराज हंस को पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव में सीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट कर सकती है. इसके लिये दलितों को एकजुट करने के मिशन पर भी काम शुरू किया जा चुका है. हालांकि, यह मिशन कितना कामयाब होगा इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन दलित मुख्यमंत्री का सपना पंजाब के दलिताें को एकजुट करने में निश्चित तौर पर भाजपा के लिए फायदेमंद होगा क्योंकि हर दलित के मन में यह टीस जरूर है कि पंजाब में बहुमत होने के बावजूद कभी उनकी बिरादरी के नुमाइंदों को मुख्यमंत्री पद पर विराजमान होने का मौका नहीं दिया गया. उनके नुमाइंदों को हमेशा बादल और कैप्टन सरीखे नेताओं के आगे झोली फैलाने को मजबूर होना पड़ा है. बहरहाल, भाजपा अपने इस मंसूबे में कामयाब होती है या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही तय करेगा लेकिन वह अगर दलित मुख्यमंत्री के नाम पर आधे दलितों को भी जोड़ ले तो पंजाब में अपनी अलग सत्ता का भाजपा का सपना जरूर पूरा हो सकता है.