दिल्ली

पूर्वांचलियों का वोट बैंक बनेगा भाजपा के लिए चुनौती, मनोज तिवारी के बिना बिगड़ेगा विधानसभा का सियासी गणित

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नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी उठापटक का दौर शुरू हो चुका है. भारतीय जनता पार्टी दिल्ली का वजीर बदलने जा रही है. नवंबर में दिल्ली प्रदेश भाजपा का नया सेनापति चुना जाना है. वर्तमान दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी का कार्यकाल नवंबर माह में खत्म होने जा रहा है. सियासी जानकारों की मानें तो भाजपा अबकी बार मनोज तिवारी की जगह पवन शर्मा पर दांव खेलने की तैयारी कर रही है. हालांकि, मनोज तिवारी के नेतृत्व में भाजपा ने हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर शानदार जीत हासिल की थी लेकिन विधानसभा चुनाव में तिवारी यह करिश्मा दोहरा पाएंगे या नहीं इस पर भाजपा संशय में है. अगर तिवारी के हाथों में दिल्ली की कमान नहीं आती तो सबसे बड़ी चुनौती पूर्वांचली वोट बैंक साधने की होगी.
दरअसल, भोजपुरिया सुपरस्टार मनोज तिवारी को जब भाजपा ने दिल्ली की सियासत में उतारा था तो पूर्वांचल वासियों के वोट बैंक को साधने के लिए ही उतारा था. अतीत पर नजर डालें तो दिल्ली की राजनीति कभी पंजाबियों और हरियाणा के लोगों के इर्द गिर्द ही घूमती थी. दिल्ली के तीन मुख्य मंत्री मदन लाल खुराना, सुषमा स्वराज और साहिब सिंह वर्मा इसका उदाहरण हैं.
दिल्ली की सियासत में इन्हीं दो राज्यों का दबदबा हुआ करता था. वक्त के साथ सियासी हालात भी बदले और 80 के दशक में दिल्ली में राजनीतिक बदलाव आना शुरू हुआ. ये वो दौर था जब यूपी, बिहार के लोग रोजगार और शिक्षा की तलाश में दिल्ली का रूख करने लगे थे. जैसे-जैसे यूपी बिहार के लोगों की आबादी बढ़ी वैसे वैसे दिल्ली की सियासत में इनका दबदबा भी बढ़ने लगा. वर्तमान में हालात ये हैं कि दिल्ली के कुल वोटर्स का लगभग 35 फीसदी हिस्सा यूपी,बिहार, झारखंड जैसे राज्यों का है. यही वजह है कि तीन दशक पहले जो सियासी दल पूर्वांचल के नेता को कोई बड़ा पद देने की सपने में भी नहीं सोचते थे वही राजनीतिक पार्टियां आज इस तबके काे नाराज करने का जोखिम उठाने को भी तैयार नहीं हैं. यही वजह थी कि बीजेपी ने मनोज तिवारी, कांग्रेस ने महाबल मिश्रा और आम आदमी पार्टी ने दिलीप पांडेय और गोपाल राय जैसे नेताओं को पार्टी में अहम जिम्मेदारी सौंपी. हालांकि, अपने स्टारडम और भाषा शैली के बूते सिर्फ मनोज तिवारी ही कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ सके.
दिल्ली की तीन संसदीय सीटों पर पूर्वांचल वोटर निर्णायक भूमिका में हैं. इनमें उत्तर पूर्वी दिल्ली, पूर्वी दिल्ली और उत्तर पश्चिम संसदीय क्षेत्र शामिल हैं. वेस्ट दिल्ली पंजाबी बाहुल्य इलाका है लेकिन यहां भी 15 फीसदी आबादी पूर्वांचल वासियों की है. इसी तरह दक्षिण और बाहरी दिल्ली में भी एक बड़ा वोट बैंक पूर्वांचल के लोगों का है.
दिलचस्प बात यह है कि मनोज तिवारी ने पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ पूर्वांचल वासियों में अपनी पकड़ मजबूत की है बल्कि उत्तर पश्चिम संसदीय क्षेत्र से हंसराज हंस को जीत दिलाकर पंजाबी वोट बैंक को भी भगवा ब्रिगेड के पाले में लाने का सफल प्रयास किया है. इसका फायदा आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को जरूर मिलेगा. इस बार चुनावी मुकाबला इसलिए भी और अधिक दिलचस्प होने जा रहा है क्योंकि केजरीवाल की लहर अब थम चुकी है. इस बार मुकाबला एकतरफा नहीं होगा बल्कि जातिवाद, क्षेत्रवाद और चेहरों पर होना है. ऐसे में अगर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का चेहरा बदलती है तो उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती मनोज तिवारी से भी बड़ा चेहरा तलाशने की होगी, जो फिलहाल दिल्ली भाजपा में तो नजर नहीं आता. पैराशूट का हाल वही होगा जो पिछली बार किरन बेदी का हुआ था.
बहरहाल, भगवा ब्रिगेड दिल्ली के सिंहासन पर इस बार किसे बिठाती है यह देखना दिलचस्प होगा. दिल्ली के एक करोड़ 37 लाख वोटरों को भी इसका बेसब्री से इंतजार है.

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