नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा के लिए दो चरणों में 33 सीटों के लिए मतदान हो चुका है. शेष सीटों पर तीन चरणों में मतदान होना है. जिसके नतीजे 23 दिसंबर को घोषित किए जाएंगे. महाराष्ट्र के बाद अब झारखंड का राजपाट भी भारतीय जनता पार्टी के हाथों से निकलता जा रहा है. हालांकि, अभी यहां वोटिंग संपन्न नहीं हुई है लेकिन भाजपा के शाह का डर इसकी गवाही आप ही देता नजर आ रहा है कि यहां की सत्ता पर भाजपा पकड़ अब ढीली पड़ती जा रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह है भाजपा की चुनावी रणनीति.
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के बाद यह कयास लगाए जा रहे थे कि झारखंड में भाजपा अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव जरूर करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. महाराष्ट्र और हरियाणा की तर्ज पर ही झारखंड में भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर ही भाजपा मैदान में डटी हुई है. हरियाणा में तो भाजपा ने जैसे तैसे चौटाला के साथ मिलकर सत्ता हथिया ली लेकिन महाराष्ट्र में एक ऐसी सरकार बनी जिसने बदलते भारत की एक नई तस्वीर पेश की है. यह एक ऐसी सियासत की तस्वीर है जिसमें धर्म निरपेक्षता की आड़ में सिर्फ राजनीतिक हित साधे गए.यहां न तो विचारधारा के टकराव के कोई मायने रह गए और न ही परस्पर विरोधी भाव से चुनावी मैदान में उतरने का कोई मलाल ही देखने को मिला. नतीजा ये हुआ कि सत्ता के इस खेल में वर्षों पुरानी शिवसेना ने भाजपा को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल दिया. शिवसेना के इस कदम ने न सिर्फ विरोधियाें के हौसले बढ़ा दिये बल्कि वो सहयोगी दल भी भाजपा को आंखें दिखाने लगे हैं जिन्होंने भाजपा के सहारे ही सत्ता का फासला तय किया था. उनका भले ही कोई निर्णायक वजूद न हो लेकिन झारखंड के चुनावी मैदान में भाजपा का सियासी खेल बिगाड़ने की कूवत वो जरूर रखते हैं.
झारखंड में दूूसरे चरण में हुए मतदान के बाद काफी हद तक यहां की चुनावी तस्वीर साफ हो चुकी है. झारखंड के मैदान में भाजपा की परेशानी के सबसे बड़े कारक दो घटनाक्रम माने जा रहे हैं. पहला विपक्ष का एकजुट होना और दूसरा भाजपा के सहयोगी दल और सत्ता में भागीदार रहे आजसू का एनडीए से गठबंधन तोड़कर चुनावी मैदान में उतरना. आजसू के अलग होने से भाजपा कितनी घबराई हुई है इसका अंदाजा भाजपा के अमित शाह के उन बयानों से लगाया जा सकता है जिनमें वह आजसू अलग चुनाव लड़ने के बावजूद उसे भाजपा का हिस्सा बता रहे हैं.
अमित शाह शायद यह भूल गए हैं कि झारखंड वही राज्य है जहां सत्ता का खेल एक अकेला निर्दलीय विधायक भी बदल सकता है. याद करें वह दौर जब सत्ता के लिए सिर्फ एक विधायक की जरूरत दोनों प्रमुख सियासी दलों को थी और निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा सभी दिग्गजों को धूल चटाते हुए खुद मुख्य मंत्री बन गए थे. कुछ ऐसा ही भाजपा से नाता तोड़ कर अकेले चुनावी मैदान में उतरी आजसू ने भी किया था जब महज दो-तीन विधायक होने के बावजूद आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो किंग मेकर साबित हुए थे और डिप्टी सीएम के पद पर विराजमान हो गए थे. फिर भाजपा के साथ सरकार का हिस्सा बन गए. उस वक्त भले ही आजसू का कोई वजूद नहीं था लेकिन अब वह 8-10 सीटें जीतने का दम तो रखती ही है, साथ ही आधा दर्जन से भी अधिक सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का खेल भी बिगाड़ सकती है. इतनी सीटें भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए काफी हैं.
अब नजर डालते हैं तस्वीर के दूसरे पहलू पर. महाराष्ट्र की तरह यहां भी कांग्रेस पर्दे के पीछे है और शिवसेना की जगह झारखंड मुक्ति मोर्चा लेती नजर आ रही है. भाजपा के खिलाफ बनाए गए महागठबंधन का चेहरा इस बार झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक दिशोम गुरु शिबू सोरेन के पुत्र और झारखंड के पूर्व उप मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन हैं. हेमंत के नेतृत्व वाला महागठबंधन रघुबर दास सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी को कैश करने में सफल होता जा रहा है. खासतौर पर विपक्ष आदिवासी समाज को यह समझाने में सफल रहा है कि भाजपा उनके जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह भाजपा का अडाणी प्रेम रहा है. भाजपा सरकार ने यहां संताल परगना के गोड्डा और धनबाद जिले के सिंदरी में अडाणी को फायदा पहुंचाने के लिए सीएनटीएसपीटी एक्ट को लचीला बनाया. इससे आदिवासी समाज का यह डर और पुख्ता हो गया कि भाजपा उनके जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करके उसे अडाणी जैसे उद्योगपतियों को देना चाहती है. आदिवासियों की इस नाराजगी का फायदा निश्चित तौर पर विपक्ष को मिलता नजर आ रहा है. विपक्ष ने एक आदिवासी हेमंत सोरेन को ही अपना चेहरा बनाया है. आदिवासी वोटर्स को लुभाने के लिए हेमंत पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें गैर आदिवासी वोटों की कोई परवाह नहीं है. होगी भी क्यों? गैरआदिवासी वोटों को तो महागठबंधन की दूसरी पार्टियां साधने में लगी हैं. हेमंत का यह दांव संताल परगना, सिंहभूम सहित रांची, बोकारो और गिरिडीह जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों में कुछ सीटों पर रामबाण साबित हो सकता है. विपक्षी दलों में झारखंड विकास मोर्चा तीसरे मोर्चे पर डटा हुआ है. बाबू लाल मरांडी के नेतृत्व में झाविमो आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने में सक्षम है. हालांकि, भाजपा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि आदिवासी वोट बैंक पहले ही उसके खाते से बाहर हो चुका है.
भाजपा के लिए सबसे मुश्किल बात यह है कि उसे विपक्ष से तो लड़ना ही पार्टी की अंदरूनी कलह से भी निपटना उसके लिए बड़ी चुनौती है. भाजपा ने पिछली सरकार में मंत्री रहे दिग्गज भाजपा नेता सरयू राय का तो टिकट काटा ही, साथ में कुछ सिटिंग विधायकों का भी पत्ता साफ कर दिया है. भाजपा की यह सफाई पार्टी में अंतर्कलह की सबसे बड़ी वजह बन गई. यही वजह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह समेत कई केंद्रीय मंत्री लगातार झारखंड में डेरा डालते रहे हैं. इससे एक बात तो स्पष्ट है कि भाजपा अंदर ही अंदर चुनावी नतीजों को लेकर डरी हुई है.
भाजपा की मुसीबत का एक और सबब केंद्र में उसके सहयोगी लोजपा और जदयू के प्रत्याशी बने हुए हैं. इन दोनों दलों के उम्मीदवार भी रघुबर सरकार के खिलाफ प्रचार करके ही वोट मांग रहे हैं. हालांकि ये उम्मीदवार विपक्ष के वोट ज्यादा काटेंगे लेकिन इनके विरोध से भाजपा के वोटों में भी कमी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
बहरहाल, झारखंड के मौजूदा राजनीतिक हालात जो सियासी तस्वीर पेश कर रहे हैं वह भाजपा के लिए अच्छा संकेत नहीं है. झारखंड फिलहाल भाजपा के हाथों से निकलता नजर आ रहा है. हालांकि, हकीकत तो चुनावी परिणाम ही बयां करेंगे. फिलहाल, 81 में 33 सीटों पर मतदान हो चुका है.