पंजाब

डा. जयकरन गोयल के शोध पर आधारित पुस्तक ‘भगवान के देश का डीएनए’ का विमोचन

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नीरज सिसौदिया, जालंधर 

‘भगवान के देश का डीएनए’ डॉ. जयकरन गोयल के शोध पर आधारित एक पुस्तक है। शोध का विषय राष्ट्र की राजनैतिक, आध्यात्मिक, वैदिक जीवन शैली पर आधारित है। इसमें क्या, क्यों, कैसे जैसे उठने वाले अनेक सवालों के सटीक जवाब हैं। यह आम पुस्तक नहीं बल्कि भारतीय मनुष्य के जीवन जीने की शैली का संपूर्ण व्याकरण है।
मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है और इसकी सर्वश्रेष्ठता का आधार इसके अनंत विचारों का स्वामी होना है। विचारों की कोई सीमित परिधि नहीं होती, इसके तरंगों का कोई नियत आयाम नहीं होता इसीलिए ये विचार समुद्र की गहराइयों से लेकर अनंत आकाश की सीमाओं को नाप सकते हैं। इन विचारों को मनुष्य का मन डिक्टेट करता है और इसी से मनुष्य की गतिविधियां तय होती हैं। यही मनुष्य कभी शोषक बन जाता है, तो कभी पोषक बनकर समाज की रक्षा करता है। मनुष्य के इन्हीं विचारों का समूह राष्ट्र का निर्माण करता है। इसी आधार पर राष्ट्र का विचार तय होता है। भारत की पहचान यहां के मनुष्य के प्राकृतिक और वैदिक जीवन शैली पर आधारित जीवन से होती आई है। इसीलिए ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यहां की जीवनशैली में समाया हुआ है।

डॉ. जयकरन ने इस पुस्तक में इन्हीं विषयों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया है कि किस तरह बाहरी ताकतों और दूषित विचारों ने आर्यावर्त की प्राकृतिक जीवनशैली में सेंधमारी की और धीरे-धीरे हम भी अपनी पहचान को गंवाते गए।
पूंजीवादी विदेशी नीतियों के मंसूबे ने हमारे राष्ट्र को भी जकड़ लिया। पहले हम पर राज किया और हम पर अपने विचार थोपकर चले गए। हमने भी न सोचा, न समझा और उसी विचारधारा में अपने आपको ढाल लिया। हालांकि डीएनए कभी बदलने वाली चीज नहीं है। आज भी हमारे अंदर हमारे पुरखों का डीएनए वर्तमान है और यही कारण है कि अब भी बदलने की संभावनाएं हैं। एक डॉक्टर होने के नाते डॉ. जयकरन ने पूरी समस्याओं को पहले डायग्नोज किया, फिर उसका निदान ढूंढा। जैसे कि कल्चरल चक्रव्यूह में फंसे राष्ट्र को बाहर निकालने के लिए राष्ट्रभाषा की क्रांति का फॉर्म्युला दिया। पूंजीवाद के विरोध में उपजे वामपंथ को किस तरह से दुनिया ने खारिज किया और उसका क्या रहस्य है।


यह कोई पुस्तक नहीं, बल्कि शोध का विषय है कि कैसे हमारा राष्ट्र फिर से पूर्ण वैभव प्राप्त कर सकता है, फिर से सोने का चिड़िया बन सकता है, विश्वगुरु बन सकता है। इस शोध में इन तमाम पहलुओं को परत-दर-परत खोला गया है। लेखक ने अंग्रेजी का विरोध किया है, फिर भी इस पुस्तक में अंग्रेजी शब्दों का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया है कि बीमारी के हिसाब से इलाज किया जा सकता है। विषय को अक्षरश: समझाने के लिए उन्हें अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया है। पुस्तक में किस भी विषय को रहस्य के रूप में नहीं रहने दिया गया है, बल्कि एक-एक प्रश्न को उठाया गया है और उसका सटीक उदाहरण के साथ उत्तर भी दिया है। यह पुस्तक बार-बार प्रश्न उठाने पर मजबूर करती है और उन प्रश्नों का जवाब इसी पुस्तक में मिलता है। यह इस पुस्तक की यूएसपी है। इन सारे विषयों को लेखक ने बड़े ही सहज ढंग से गंभीरता पूर्वक उजागर किया है। पुस्तक में खजुराहो से शुरू हुई शोध यात्रा ‘… और मनुष्य की नियति है भगवान होना’ पर जाकर रुकती है। डॉ जयकरण 1948 को सोनीपत जिले के एक छोटे से गांव मदीना में जन्मे मात्र 12 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रवाद और धर्म जैसे गंभीर विचार उनके हृदय में जन्म ले चुके थे जिनके चलते वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की तरफ आकर्षित हुए और 14 वर्ष की आयु में प्राथमिक वर्ष आईटीसी पूरा किया अनुमति न मिलने के कारण 1967 में घर से भागकर आर एस एस का प्रथम दृष्टया सोनीपत जिले की तहसील से लेकर 2003 तक उन्होंने एक प्रतिष्ठित होने के साथ-साथ समाज के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बनाई मरीजों की लंबी लाइन छोड़कर 1985 में द्वितीय और तृतीय वर्ष सफलतापूर्वक पूरा किया सामाजिक पहचान का नंबर 1 स्कूल गीता विद्या मंदिर जिन्होंने 2 विद्यार्थियों और एक अध्यापक के साथ किया और अपने खून पसीने से खींचकर उसे कामयाब बनाया इन सब के साथ-साथ उठने वाले विचारों को कॉल करने का टैलेंट उनके सामने आया उनके संपर्क में रह सकती कभी-कभी उन्हें धर्म गुरुओं के साथ वाद-विवाद करते अवश्य देखा होगा अपनी रूचि के कारण नवभारत टाइम्स के एडिटोरियल पेज से भी कुछ समय के लिए जुड़े रहे परंतु उस समय के अभाव के कारण छूट गया उन्होंने 18 अगस्त 2007 यानी 13 वर्ष पूर्व उन्होंने अपने इस विचार को गति देना प्रारंभ किया और शुरू किया गीता और वेदों का अध्ययन और रिसर्च की ताकि अपने मन में उठने वाले अध्यात्म और राष्ट्र के in विचारों को कलम बंद करके आता है इनका यह रिसर्च वर्क पूरा होकर भगवान के देश का डीएनए नामक पुस्तक के रूप में आज आपके समक्ष प्रस्तुत है।

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