नीरज सिसौदिया, जालंधर
सियासत के खेल बड़े निराले होते हैं. कब कौन बादशाह बन जाए और कब कौन फकीरों की जमात में शामिल हो जाए यह कोई नहीं जानता. जालंधर की सियासत का एक ऐसा ही सितारा हुआ करते थे मनोरंजन कालिया. एक दौर था जब कालिया स्थानीय निकाय मंत्री हुआ करते थे. उस दौर में कालिया की तूती बोला करती थी. आलम ये था कि कालिया डिप्टी सीएम बनने का सपना देखने लगे थे. सत्ता के नशे में कालिया इतने चूर हो गए कि वह सिर्फ एकछत्र राज करना चाहते थे. कालिया खुद को जालंधर की सियासत का सुल्तान समझने लगे थे. बस यहीं से अकाली-भाजपा गठबंधन के बीच नफरत की कहानी का सूत्रपात हुआ. कालिया की मनमानी अकाली-भाजपा गठबंधन को दीमक की तरह चट करने लगी थी. कालिया सिर्फ अकाली दल को ही नहीं बल्कि भाजपा को भी खोखला करते जा रहे थे लेकिन आलाकमान को यह बात देर से समझ आई.
बात उस दौर की है जब कालिया विधायक हुआ करते थे और राजिंदर बेरी पार्षद. बेरी कांग्रेस के वफादार सिपाही थे. कालिया जानते थे कि बेरी कभी भी भाजपा का दामन नहीं थामेंगे. उस दौर में बेरी के विरोधी के तौर पर अरुण बजाज को सबसे मजबूत और कद्दावर नेता माना जाता था. बजाज ही थे जो भविष्य में कालिया के लिए चुनौती खड़ी कर सकते थे. वक्त गुजरता गया और निगम चुनाव आ गए. कांग्रेस की ओर से बेरी मैदान में थे तो भाजपा ने अरुण बजाज को मैदान में उतारा था. कालिया के पास यह सही मौका था बजाज को रास्ते से हटाने का. कालिया जानते थे कि अगर बजाज जीत गए तो भविष्य में वह कालिया का विकल्प बन सकते हैं. सियासी जानकार बताते हैं कि उस वक्त कालिया ने बेरी की पूरी मदद की और बजाज चुनाव हार गए. बजाज की सियासत को यहीं ब्रेक लग गया. फिर बारी आई भाजपा के वर्तमान देहाती प्रधान अमरजीत सिंह अमरी की. अमरी के भाई चन्नी अकाली दल में उस दौर में अच्छी पकड़ रखते थे. फिर चुनावी मौसम आया और इस बार बेरी के सामने अमरी थे. मनोरंजन कालिया विधायक थे और अमरी की पकड़ भी काफी मजबूत थी. अमरी लगभग चुनाव जीतने की स्थिति आ चुके थे. लेकिन सूत्र बताते हैं कालिया ने यहां हिन्दू कार्ड खेल डाला और कालिया के समर्थकों के वोट बेरी की झोली में जा गिरे. इसी दौर में एक और भाजपा नेता सेंट्रल हलके में अपनी पकड़ बना रहा था. नाम था एडवोकेट सुभाष सूद. कालिया उस वक्त मंत्री थे और डिप्टी सीएम पद के दावेदार भी थे. सुभाष सूद जिस वार्ड से चुनाव लड़ना चाहते थे उस वार्ड से कालिया ने कपड़ों के व्यापारी गुरबख्श लाल मिंटू टीटीएस को मैदान में उतार दिया. मिंटू कालिया का फाइनांसर हुआ करता था.
कालिया ने एक तीर से दो निशाने साधे. पहला अपने फाइनांसर को टिकट दिलवाकर खुश कर दिया और दूसरा सुभाष सूद नाम का कांटा अपनी सियासी राहों से हमेशा के लिए उखाड़ फेंका. नतीजा ये हुआ कि पूरा जोर लगाने के बाद भी कालिया मिंटू को नहीं जिता सके. स्थानीय निकाय मंत्री होते हुए भी मिंटू की ये हार कालिया के लिए शर्मनाक थी. वो भी जोगिंदर सिंह टोनी नाम के आजाद प्रत्याशी से मिंटू का हारना गले से नहीं उतर रहा था.
भाजपा के तीन दिग्गजों को कालिया अपने रास्ते से हटा चुके थे लेकिन इनके अलावा अशोक गांधी नाम का भी एक चेहरा था जो कालिया का विकल्प हो सकता था. कालिया ने उन्हें भी आगे नहीं बढ़ने दिया. इस दौर में सेंट्रल विधानसभा सीट पर दो सिख चेहरे अकाली दल का कद बढ़ाते जा रहे थे. इनमें पहला चेहरा था कुलदीप सिंह ओबरॉय का और दूसरा विरासत हवेली के मालिक सरदार इकबाल सिंह ढींढसा का. ओबरॉय दंपति बीस साल से लगातार चुनाव जीतता आ रहा था और अरविंदर कौर ओबरॉय डिप्टी मेयर बन चुकी थीं.
कालिया समझ चुके थे कि सेंट्रल में अगर ओबरॉय का कद इसी रफ्तार से बढ़ता गया तो उनका सियासी सफर थम सकता है. निजी स्वार्थ के चलते कालिया ने यहां पार्टी और गठबंधन दोनों को ही खोखला करना शुरू कर दिया.
कुलदीप सिंह ओबरॉय कहते हैं कि अकाली दल और भाजपा में आज जो दूरी पंजाब में देखने को मिलती है उसका बीज मनोरंजन कालिया ने ही बोया है. कालिया ने अपने स्वार्थ के चलते गठबंधन को काफी नुकसान पहुंचाया है जिसकी भरपाई करना बहुत मुश्किल है. वह बताते हैं कि कालिया ने हमेशा अच्छे नेताओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए ओछी राजनीति की है जिसका खामियाजा गठबंधन को भुगतना पड़ा है.
पहले कालिया ने इकबाल सिंह ढींढसा की टिकट कटवा दी और फिर कुलदीप सिंह ओबरॉय का पत्ता साफ करवा दिया. सूत्र बताते हैं कि ओबरॉय का टिकट कटवाने के लिए कालिया ने अरुण जेटली तक जोर लगा दिया था. इस काम में बलि का बकरा बनाए गए अकाली नेता सरदार परमप्रीत सिंह विट्टी. विट्टी को कालिया की मेहरबानी से टिकट तो मिल गई लेकिन ओबरॉय दंपति ने आजाद प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. हैरानी की बात थी कि बीस साल से लगातार जो शख्स अकाली दल की झोली में जीत डालता आ रहा था अचानक उसका टिकट काट दिया गया. अकाली दल को ये बात कुछ देर से समझ आई तो उसने चुनाव से ठीक दो दिन पहले ओबरॉय के समर्थन में अपने प्रत्याशी को बैठा दिया. कालिया का मकसद पूरा हो चुका था. ओबरॉय को हार का सामना करना पड़ा और जो सीटें अकाली-भाजपा गठबंधन की झोली में आ सकती थीं वह नहीं आईं. ऐसा ही कुछ इकबाल सिंह ढींढसा के साथ भी लगभग सात साल पहले हुआ था जब कालिया के इशारे पर ढींढसा की टिकट काट दी गई थी लेकिन ढींढसा ने बतौर आजाद उम्मीदवार चुनाव लड़ा और गठबंधन के उम्मीदवार को धूल चटा दी थी.
अगर ये दोनों नेता कालिया की सियासी साजिश का शिकार न हुए होते तो आज सेंट्रल की सीट गठबंधन की झोली में होती. हैरानी की बात है कि निगम चुनाव में गठबंधन की ओर से जब-जब कालिया के पसंदीदा उम्मीदवार उतारे गए तब-तब गठबंधन को सीट गंवानी पड़ी. लेकिन न तो अकाली नेता कालिया के स्वार्थ को समझ पाए और न ही अकाली नेता कालिया की चाल को भांप सके. नतीजा ये हुआ कि जो गठबंधन जालंधर की सीटों पर एक बार फिर काबिज हो सकता था उसे कालिया का स्वार्थ ले डूबा और गठबंधन तितर-बितर हो गया. कालिया की सियासी दगाबाजी के उदाहरण यहीं पर खत्म नहीं होते. वर्ष 2014 में जब मोदी लहर में पूरे देश में भाजपा नेता लोकसभा चुनाव जीत रहे थे तो जालंधर सीट पर उतारे गए अकाली नेता पवन टीनू को सीट गंवानी पड़ी. सूत्र बताते हैं कि टीनू की हार में भी कालिया ने अहम भूमिका निभाई थी. यही वजह है कि बिक्रम सिंह मजीठिया अब तक कालिया से नफरत करते हैं. इतना ही नहीं अकाली नेता और पूर्व पार्षद बलवीर सिंह बिट्टू के खिलाफ भी कालिया अंदरखाते विरोध की राजनीति करते आए हैं. यही वजह है कि बिट्टू दंपति को भी इस बार दोनों सीटें गंवानी पड़ गईं.
कहते हैं वक्त के पास हर जख्म का मरहम होता है. इंसान जो बोता है वही काटता है. कालिया का सियासी खेल अब आलाकमान और संघ नेताओं की भी समझ में आ चुका है. यही वजह है कि कालिया के विकल्प के तौर पर पूर्व मेयर राकेश राठौर का नाम सामने आने लगा है. साफ सुथरी छवि वाले राकेश राठौर सेंट्रल में कालिया की जगह लेने जा रहे हैं. अगर राठौर यहां से मैदान में उतरते हैं तो ओबरॉय और ढींढसा का साथ भी उन्हें मिलेगा और बेरी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. हालांकि, अगर ऐसा नहीं हुआ तो गठबंधन को एक बार फिर यह सीट गंवानी पड़ेगी.
…जब कालिया के गाल पर पड़ा था मक्कड़ का थप्पड़
बात उस दौर की है जब मनोरंजन कालिया गठबंधन सरकार में स्थानीय निकाय मंत्री हुआ करते थे और दबंग अकाली नेता सरबजीत सिंह मक्कड़ विधायक थे. उस वक्त मक्कड़ मॉडल टाउन के पास चुनमुन मॉल की फाइल को लेकर चंडीगढ़ स्थित निकाय मंत्री के बंगले पर पहुंचे. विश्वसनीय सूत्र बताते हैं कि जब मक्कड़ ने कालिया के पीए से कालिया से मिलाने को कहा तो उसने इनकार करते हुए कालिया के बंगले में नहीं होने की बात कही. इस पर मक्कड़ वापस लौटने लगे. अभी मक्कड़ ने अपनी गाड़ी का दरवाजा खोला ही था कि उनकी नजर कालिया के बंगले से निकल रहे एक अन्य विधायक पर पड़ी. विधायक को देखते ही मक्कड़ उनका हाल-चाल पूछने लगे. इसी दौरान विधायक ने उन्हें बताया कि कालिया बंगले पर ही हैं और वह कालिया से ही मिलकर आ रहे हैं. इस पर मक्कड़ भड़क गए और सीधा कालिया के पास जा पहुंचे. इससे पहले कि कालिया कुछ समझ पाते मक्कड़ ने कालिया के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया था. इस थप्पड़ की गूंज काफी दिनों तक प्रदेश भर में सुनाई देती रही. सूत्र बताते हैं कि कालिया को थप्पड़ जड़ने के बाद मक्कड़ कश्मीर की सैर को निकल गए थे और बाद में सुखबीर बादल ने दोनों में सुलह करा दी थी.