यूपी

पंचायत चुनाव की जमीन तैयार कर ली सपा ने, नाकाम हुई कांग्रेस और बसपा, कृषि कानूनों के खिलाफ मार लिया मैदान

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नीरज सिसौदिया, बरेली
हाल ही में हुए विधान परिषद् चुनाव और उससे पहले उपचुनाव में करारी शिकस्त झेलने वाली समाजवादी पार्टी ने जिस जोश के साथ कृषि कानूनों के मसले पर आंदोलन किया है उसने प्रदेश में एक सशक्त विपक्ष का अहसास जरूर करा दिया है. खास तौर पर बरेली में गुटबाजी के बावजूद जिस तरह से पूर्व मंत्री भगवत सरन, अताउर्रहमान, जिला अध्यक्ष अगम मौर्य और महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी ने मोर्चा संभाला वह काबिले तारीफ रहा. इस आंदोलन में सबसे ज्यादा महफिल जिस शख्स ने लूटी वह भगवत सरन हैं. भगवत सरन जिस तरह से पुलिस के साथ भिड़ते नजर आए और लगातार दो दिनों तक जिस तरह से पुलिस उन्हें पकड़ कर थाने और पुलिस लाइन ले जाने को मजबूर हो गई उससे एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि यूपी में विपक्ष अभी दमदार स्थिति में मौजूद है और सत्ता के सिंहासन को हिलाने की ताकत भी रखता है.
दरअसल, बंद का ऐलान तो देशभर में किया गया था और कांग्रेस ही इसकी सूत्रधार थी लेकिन बरेली में बेजान कांग्रेस नेता जब तक सो कर उठते तब तक पुलिस उन्हें नजरबंद करने उनके घर पर ही पहुंच गई. बेचारे कांग्रेस महानगर अध्यक्ष अजय शुक्ला जब तक हाथ मुंह धोते तब तक पुलिस कर्मी उनकेे घर पर पहरा देने पहुंच गए और 11 बजे दामोदर स्वरूप पार्क जाकर आंदोलन करने का उनका सपना महज सपना बनकर ही रह गया. बाद में मांगपत्र देने की औपचारिकता जरूर करने को मिली लेकिन जो छाप छोड़ने का मौका कांग्रेस नेताओं को मिला था उसे भुनाने में कांग्रेसी पूरी तरह से नाकाम साबित हुए. सबसे हैरानी की बात तो यह है कि दिग्गज कांग्रेस नेता इस आंदोलन में कहीं भी नजर नहीं आए. शायद उन्हें भी यह अहसास हो गया है कि अंतिम सांसें गिन रही कांग्रेस को ऐसे संजीवनी नहीं मिलने वाली. कांग्रेस से बेहतर तो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी रही जो एक दिन पहले ही दामोदर स्वरूप पार्क में अपना विरोध दर्ज करा चुकी थी. कुछ ऐसा ही हाल बसपा का भी रहा. वह भी अपनी वो मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाई जो करा सकती थी.
इस आंदोलन का सबसे बड़ा लाभ समाजवादी पार्टी को निश्चित तौर पर आगामी पंचायत चुनावों में मिलेगा. चूंकि भाजपा इस बार सिंबल पर पंचायत चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है और नए कृषि कानूनों के खिलाफ देश के साथ ही बरेली में विपक्ष ने ऐसा माहौल बना दिया है कि ज्यादातर किसान भाजपा विरोधी हो चुके हैं. इसका खामियाजा भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को आगामी विधानसभा चुनावों में जरूर भुगतना पड़ सकता है. समाजवादी पार्टी का बंद भले ही बेअसर रहा हो पर पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपना असर जरूर छोड़ दिया है. वैसे तो जनवरी या फरवरी तक पंचायत चुनाव होने की उम्मीद जताई जा रही थी लेकिन अब शायद किसानों के आंदोलन को देखते हुए भाजपा सरकार इन्हें आगे भी बढ़ा सकती है.अगर तय समय पर ही पंचायत चुनाव होते हैं तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है. चूंकि अगर गांवों की सरकार पर सपा का कब्जा हो गया तो सूबे की सरकार पर कब्जा जमाना सपा के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं होगा. यही वजह है कि भाजपा गांवों की पगडंडियों के सहारे विधानसभा का फासला तय करने का सपना देख रही है लेकिन इस सपने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा कृषि कानून हैं जिनके नाम पर विपक्षी दल किसानों की हमदर्दी बटोरने की जुगत में लगे हैं.

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