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कोरोना : सतर्कता से समाधान तक आसान नहीं था सफर, पढ़ें डा. प्रमेंद्र माहेश्वरी की कलम से…

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आपकी सेहत 

डा. प्रमेंद्र माहेश्वरी 

लगभग 10 महीने तक एक लाइलाज महामारी से जूझने के बाद आखिरकार 16 जनवरी को कोरोना वैक्सीनेशन का फर्स्ट फेज लॉन्च हो गया. भारत के लिए यह बहुत बड़ा अवसर है. पहले चरण में देशभर में तीन करोड़ लोगों को फ्री ऑफ कॉस्ट वैक्सीनेट करना देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. दुनिया के कई ऐसे देश हैं जिनकी कुल आबादी भी तीन करोड़ नहीं है, वे देश अपने यहां वैक्सीन तक नहीं बना सके हैं. ऐसे में भारत में तीन करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों को वैक्सीन लगना एक बहुत बड़ा अवसर होने के साथ ही आत्मनिर्भर भारत का सबसे बड़ा उदाहरण भी है. जब पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी से जूझ रही थी तो हमारा देश रिसर्च एंड डेवलपमेंट में लगा हुआ था और उसी का नतीजा है कि आज हम दो स्वदेशी वैक्सीन बना पाए हैं. आज बहुत सारे देश हमसे ये स्वदेशी वैक्सीन खरीदना चाहते हैं. जो देश ये वैक्सीन बेच रहे हैं वहां एक वैक्सीन की टोटल कॉस्ट ₹5000 आ रही है लेकिन हमारे देश में इसे मुफ्त बांटने के लिए उपलब्ध कराना निश्चित तौर पर बड़ी उपलब्धि है. यह उसी सरकारी तंत्र की एक बड़ी उपलब्धि है जिसे हम नाकारा और जाने क्या-क्या कह कर कोसते रहते थे. यह इसी तंत्र की उपलब्धि है कि बिना किसी को पता चले वैक्सीन बन भी गई, रिसर्च भी हो गई, ट्रांसपोर्टेेशन भी हो गया, स्टोरेज भी हो गया और 16 जनवरी को स्वास्थ्य कर्मियों को लग भी गई. एक बहुत बड़ा सरकारी सिस्टम लगा हुआ था इस पूरे काम में. उसी नाकारा कहे जाने वाले सिस्टम ने मोदी जी के नेतृत्व में आज इतना बड़ा काम कर दिखाया है जो असंभव लग रहा था लेकिन क्या यह सब इतना आसान था? आखिर कोरोना वैक्सीन इन के निर्माण में इतना वक्त क्यों लग गया? वैक्सीन के कोई साइड इफेक्ट तो नहीं? इसके लिए दवा या कोई अन्य उपाय भी हैं? ऐसे कई सवाल आम आदमी के जेहन में खुद ब खुद उठने लगते हैं. इनका जवाब जानने के लिए इस प्रक्रिया को बारीकी से समझना बेहद जरूरी है.
कोरोना एक वायरस जनित रोग है. चिकन पॉक्स, मीसर्स, डेंगू और फ्लू जैसी कई वायरस जनित बीमारियां हैं जिन्हें हम वायरल बीमारियां भी भी कहते हैं. चिकन पॉक्स और मीज़र्स जैसी कई बीमारियां जिन्हें वैक्सीन के जरिए ही खत्म किया गया हैं. भारत को कैपिटल ऑफ वैक्सीन कहा जाता है. दुनिया की 60 फीसदी वैक्सीन भारत में ही बनाई जाती हैं. भारत में वैक्सीन का मैन्युफैक्चरिंग प्रोसेस बहुत ही स्ट्रिक्ट और अच्छे तरीके से मॉनिटर किया जाता है. दुनिया भर के 60 फ़ीसदी नवजात बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिए जो वैक्सीन लगाए जाते हैं वे भारत में ही बनते हैं. शायद यही वजह है कि हम इतनी जल्दी कोरोना वैक्सीन बनाने में सफल हो पाए हैं. यह वैक्सीन आरएनए वैक्सीन कहलाती है जो कोरोना वायरस से ही बनाई जाती है. इसका काम शरीर में एंटीबॉडीज को बनाना होता है. इसे बाएं कंधे पर आटोडिसेबल निडिल से लगाया जाता है जिसे दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. यह एक सामान्य वायरस है जिसके कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं. इसे लगाने के बाद एलर्जी हो सकती है या किसी को घबराहट उल्टी जैसा भी महसूस हो सकता है. ये सब सामान्य लक्षण हैं जो कोई भी दवा खाने से हो सकते हैं. बात अगर बरेली शहर की करें तो यहां 800 स्वास्थ्य कर्मियों को पहले चरण में व्यक्ति लगाई जानी थी लेकिन 550 स्वास्थ्य कर्मी ही वैक्सीन लगाने पहुंच पाए. उनके न पहुंचने के बहुत सारे कारण रहे होंगे लेकिन मैं उन्हें दुर्भाग्यशाली मानता हूं कि वे लोग इस ऐतिहासिक पल का हिस्सा नहीं बन सके.
दरअसल, कोरोना एक अनयूजुअल बीमारी के रूप में हमारे सामने आया था. चीन के वुहान शहर के एक व्यक्ति से शुरू हुई यह बीमारी दुनिया भर के लगभग दस करोड़ लोगों के शरीर में फैल चुकी थी. इस बीमारी में थ्रॉम्ब्स यानी खून के थक्के जम जाते हैं. शुरुआती दौर में खून के थक्के जमने पर जो पारंपरिक इलाज किया जाता है वही इलाज इसमें भी मरीज को दिया गया लेकिन वह ठीक नहीं हो रहा था. पहले इस बीमारी के इलाज के लिए कोई दवा नहीं आई थी. इसलिए एक सिंप्टोमेटिक ट्रीटमेंट ही चलाया जा रहा था लेकिन अब दवा उपलब्ध हो चुकी है, गाइडलाइंस आ गई हैं, वैक्सीन भी आ गई है. एक और बात जो सबसे अहम है वह यह है कि कोरोना वायरस को मात देने वाले मरीजों में दो, चार या छह माह बाद कुछ परेशानियां देखने को मिल रही हैं. बहुत से ऐसे मरीज सामने आ रहे हैं जिन्हें लगातार खांसी हो रही है या हड्डियों में दर्द हो रहा है या रीढ़ की हड्डियों में तकलीफ होने से पैरों में झनझनाहट होती है. खून के थक्के बनने से कुछ को हार्ट अटैक भी आए हैं, कुछ को पैरालिसिस भी हो जाता है. इन सभी की एक खास वजह है खून के थक्के जमना. ब्रेन में खून का थक्का जमेगा तो पैरालाइसिस हो जाएगा, हार्ट में जमेगा तो हार्ट अटैक आएगा, किडनी में जमेगा तो पेशाब करने में प्रॉब्लम होगी, हड्डियों में जमेगा तो हड्डियों में दर्द रहेगा. कुछ ऐसी परेशानियां उन मरीजों में देखी जा रही है जो कोरोना वायरस से लगभग दो, चार या 6 महीने पहले ठीक हो चुके थे. वैक्सीन को अगर छोड़ दें तो कोरोना के लिए रेमडिसिवर एक इंजेक्शन आया है जो बहुत ही गंभीर मरीजों के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ था. कोरोना के गंभीर मरीज जो वेंटीलेटर तक पहुंच गए थे, वह भी इस इंजेक्शन से ठीक हुए हैं. यह कोई ओरल ड्रग नहीं है. वायरस की बीमारियों में जो एंटी वायरल ड्रग दी जाती है उनमें एक फ्लेबिपिर टेबलेट भी होती है जिसका एक हफ्ते का कोर्स होता है. उससे शुरुआती लक्षण वाले मरीजों को कंट्रोल किया जा सकता है. अब कोरोना के लिए खाने की दवा और इंजेक्शन दोनों ही उपलब्ध हैं. इसके अलावा प्लाज्मा थेरेपी भी एक प्रक्रिया के रूप में भी हमारे पास उपलब्ध है. हालांकि प्लाजमा थेरेपी पूरी तरह से कारगर नहीं कही जा सकती लेकिन बरेली शहर में भी बहुत सारे मरीज इसी थेरेपी के माध्यम से ठीक ही हुए हैं. इसे फायदेमंद इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि जहां 100 मरीजों के बचने की कोई संभावना न हो और इस थेरेपी के माध्यम से हम अगर हम 20 से 25 मरीजों को भी ठीक कर लेते हैं तो इसे एक विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. दिलचस्प बात है कि बरेली शहर में जो पहले पांच प्लाज्मा डोनर थे वे डॉक्टर ही थे जो कोरोना को मात दे चुके थे. उन्होंने अपना प्लाज्मा डोनेट किया और लोगों की जान भी बचाई गई. अब वैक्सीन भी आ चुकी है.
दरअसल, चिकित्सा क्षेत्र में हर 4 से 5 वर्षों के बाद नए डेवलपमेंट होते हैं. नई दवाई, नई मशीनें, नए-नए रिसर्च होते रहते हैं. इनमें दवा लेने के तरीके भी शामिल हैं. शरीर में ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के चार से पांच ट्रांसमिशन हैं. इनमें स्किन, इंटेस्टाइन, नेजल इंजेक्शन ब्लड से आदि शामिल हैं. कई मरीजों को दवा खाने के बाद पेट में गैस या अन्य दिक्कतें होने लगती हैं. ऐसे में एक तरीका आता है कि इसे इंजेक्शन से लिया जाए या नेजल स्प्रे के जरिए आप दवा को सूंघते हैं तो दवा पेट में नहीं जाती. दर्शन वायरस कि एंटीबॉडी को अगर हम दवा के रूप में खिलाएंगे तो वह इफेक्टिव नहीं होगी क्योंकि वह दवा के सीधे पेट में जाएगी और पेट में एसिड होने के कारण वह असरदार नहीं होगी. ऐसे में अगर हम कोरोना वायरस की सूंघने वाली दवा बना लेते हैं तो वह और भी आसान होगा. हमारे वैज्ञानिक इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं. वर्तमान में हमारे पास जो दो बेसिक वैक्सीन उपलब्ध हैं वह दुनिया के कई अच्छे-अच्छे देशों के पास भी नहीं है. रिसर्च एंड डेवलपमेंट चल रहा है. एक वैक्सीन के ट्रायल फेज में लगभग 6 से 7 माह का वक्त लगता है. ऐसे में साल के अंत तक वैक्सीन के कुछ और प्रकार आने की उम्मीद है.
दूसरे डोज के बीद दिखेगा वैक्सीन का असर
अभी वैक्सीनेशन का पहला फेज हुआ है. इसके 28 दिन बाद दूसरा फेज होगा जिसमें बूस्टर डोज लगेगी. उसके बाद हम वैक्सीन लगवाने वालों के शरीर में एंटीबॉडी टाइटर नाप कर देखेंगे कि उसके शरीर में एंटीबॉडीज कब तक रहती है. 6 महीने रहती है, साल भर रहती है या उससे ज्यादा वक्त तक असर करेगी. वैक्सीन का असर कब तक रहेगा इसका अध्ययन किया जाएगा. कोरोना वैक्सीन की फ्रीक्वेंसी को देखा जाएगा. जिन लोगों ने वैक्सीन नहीं लगवाई है उन्होंने एक अवसर गंवा दिया है. कुछ लोग अपनी जान के डर से व्यक्ति लगवाने नहीं आए हैं. ऐसे लोगों को स्वास्थ्य कर्मी कहलाने का कोई हक नहीं है क्योंकि एक डॉक्टर की जिम्मेदारी होती है कि वह आगे आए और वैक्सीन लगवाए हुए अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकते.

(डॉक्टर प्रमेंद्र माहेश्वरी, पूर्व अध्यक्ष इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, ऑर्थो स्पेशलिस्ट, गंगाचरण अस्पताल, बरेली)

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