हिन्दुस्तान के बंटवारे ने लाखों परिवारों को बेघर कर दिया था. इनमें से एक ओबरॉय परिवार भी था जो आज बरेली में समाजसेवा के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना चुका है. वैसे तो लोग समाजसेवा का रास्ता राजनीति का सफर तय करने के लिए चुनते हैं मगर बरेली में एक ऐसी शख्सियत भी है जिसने राजनीति छोड़ने के बाद समाजसेवा का सफर शुरू किया. जी हां हम बात कर रहे हैं समाजसेवी अश्वनी ओबरॉय की. वह न तो किसी पार्टी के ओहदेदार हैं और न ही उन्होंने अपनी कोई संस्था ही बनाई है. जो भी संस्था गरीबों और जरूरतमंदों की मदद को आगे आती है, अश्वनी ओबरॉय उनके साथ खड़े नजर आते हैं. एक दौर था जब राजीव गांधी उन्हें राज्यसभा ले जाना चाहते थे. फिर उन्होंने राजनीति क्यों छोड़ दी? समाजसेवा में वह अग्रणी भूमिका निभाते हैं मगर आज तक अपनी कोई संस्था नहीं बनाई. इसकी क्या वजह है? बरेली को उन्होंने बेहद करीब से देखा और महसूस किया है. शहर के विकास को वह किस नजरिये से देखते हैं? बरेली के औद्योगिक विकास की रफ्तार बेहद धीमी है. इसका समाधान कैसे हो सकता है? निजी जिंदगी और जनता के विभिन्न मुद्दों पर अश्वनी ओबरॉय ने नीरज सिसौदिया के साथ खुलकर बात की. पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश…
सवाल : आप मूल रूप से कहां के रहने वाले हैं, पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या रही?
जवाब : हम मूलरूप पंजाबी खत्री बिरादरी से ताल्लुक़ रखते हैं और मूलरूप से पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर के रहने वाले हैं. बंटवारे के वक्त लाखों परिवार पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर हो गए थे. उनमें से एक परिवार हमारा भी था. मेरे पिता डॉक्टर थे और ताऊ जी आर्मी में थे. बंटवारे के बाद सभी लोग पहले अंबाला आए, फिर दिल्ली और उसके बाद बरेली कैंट आ गए. इसके बाद पिता जी और उनके भाई आलमगिरिगंज में किराये के मकान में रहने लगे. फिर वर्ष 1958 में मॉडल टाउन में अपना घर बनाया. तब से यहीं रह रहे हैं.
सवाल : राजनीति में कब आना हुआ?
जवाब : राजनीति में स्टूडेंट लाइफ से ही आ गए थे. पहले एनएसयूआई में रहा. फिर यूथ कांग्रेस, महानगर कांग्रेस और जिला कांग्रेस में रहा. वर्ष 1989 में वार्ड 24 से सभासद का निर्दलीय चुनाव लड़ा. उस वक्त एक वार्ड से दो सभासद चुने जाते थे. उनमें से एक मैं था और दूसरे रिजर्व कैटगरी से नंद किशोर जी थे जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.
सवाल : राजनीति छोड़ने की क्या वजह रही?
जवाब : वर्ष 1991 में विधानसभा चुनाव होने जा रहे थे. मैं कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहता था लेकिन पार्टी ने एसआरएमएस के चेयरमैन देवमूर्ति जी को टिकट दे दिया. उनसे मेरे निजी संबंध बहुत अच्छे थे और आज भी हैं लेकिन राजनीतिक और निजी संबंध अलग बात होती है. मैं निर्दलीय मैदान में उतर गया. एनडी तिवारी, जितेंद्र प्रसाद, डंपी आदि ने बहुत प्रयास किया कि मैं नामांकन वापस ले लूं लेकिन मैंने वापस नहीं लिया. फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बरेली आए और पागलखाना ग्राउंड में में उनकी चुनावी बैठक हुई. उसमें राजीव जी ने मुझे भी आमंत्रित किया. प्रधानमंत्री के निवेदन पर मैंने अपना नामांकन वापस ले लिया. उसी दौरान वर्ल्ड मोमिन कांफ्रेंस के चेयरमैन याया हसन भी राजीव गांधी के साथ बरेली आए. दोनों के साथ मेरी बात हुई और राजीव गांधी ने मुझसे कहा कि वह मुझे जिला और प्रदेश स्तर पर नहीं राष्ट्रीय राजनीति में ले जाना चाहते हैं. वह मुझे राज्यसभा में देखना चाहते हैं. उसके बाद राजीव गांधी की हत्या कर दी गई और फिर मैंने राजनीति छोड़ दी.
सवाल : समाजसेवा का सफर कब शुरू हुआ?
जवाब : हमारे पिता जी आजीवन हरि मंदिर के प्रेसीडेंट रहे. मैं वर्तमान में हरि मंदिर के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल हूं. समाजसेवा का जज्बा मुझे उन्हीं से विरासत में मिला था. राजीव गांधी के निधन के बाद मैंने राजनीति पूरी तरह छोड़ने का निर्णय ले लिया और समाज सेवा के क्षेत्र में आ गया. जहां भी जरूरतमंद या गरीब मेरे संपर्क में आते थे तो मैं उनकी मदद करता था.
सवाल : आप समाजसेवा से तो जुड़े हैं पर अभी तक अपनी कोई संस्था या एनजीओ क्यों नहीं बनाया?
जवाब : मैं अपने बारे में कुछ नहीं कह सकता, जो भी करता है वो भगवान करता है. यहां ये पंक्तियां चरितार्थ होती हैं- ‘करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है, अापकी दुआ से सब काम हो रहा है.’ करने वाले वही कन्हैया हैं. गुरबाणी में कहा गया है कि अपने कारज आप संवारें… हमें तो सेवा के लिए बुलाते हैं तो हम चले जाते हैं. हमारे पिता कहा करते थे कि जब तक सांस अंदर है तब तक तुम्हारी है और जब निकल गई तो ठाकुर जी की है. जब सांस हमारी नहीं है तो संस्थाएं हमारी क्या होंगी. पिता जी कहा करते थे कि बेटा अपने अहम और वहम में कभी मत जीना, जब जीना तो परमात्मा के रहम में जीना. इसलिए मुझे कोई वहम नहीं कि मैं समाजसेवा कर रहा हूं. नर सेवा नारायण सेवा ही मेरा उद्देश्य है.
सवाल : आप किन-किन सामाजिक संस्थाओं का सहयोग कर रहे हैं और किस तरह की समाजसेवा को प्राथमिकता देते हैं?
जवाब : मुझे शहर की लगभग सभी उन समाजसेवी संस्थाओं के साथ जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो समाज सेवा के क्षेत्र में बेहतर कार्य कर रही हैं. जैसे सर्व धर्म समाज, समर्पण एक प्रयास, सब की रसोई, सीता रसोई आदि कई संस्थाएं हैं जो समाज सेवा के क्षेत्र में बेहतर कार्य कर रही हैं. आज बेरोजगारी चरम पर है. ऐसे में लोगों को पेट भरने के लिए खाना भी नहीं मिल पाता तो विचार किया कि सब संस्थाएं मिलकर आगे आएं और लोगों को सस्ता भोजन उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करें. 22 जुलाई 2018 को खुशलोक अस्पताल के सामने सब की रसोई की ओर से ₹10 में भरपेट खाना देने की सेवा शुरू की गई. इसी तरह समर्पण एक प्रयास की ओर से ₹5 में जिला अस्पताल में मरीजों को खाना उपलब्ध कराया जा रहा है. लॉकडाउन में तो यह काम और भी बढ़ गया था. उस वक्त सभी संस्थाओं ने कड़ी मेहनत की और हर गरीब एवं जरूरतमंद तक भोजन पहुंचाया. सर्दियां शुरू होते ही लोगों को गर्म कपड़े और कंबल भी बांटे गए. समाजसेवी संस्थाएं काफी अच्छा काम कर रही हैं और उनके साथ खड़े होने में मुझे खुशी मिलती है.
सवाल : आपने बरेली शहर को बेहद करीब से देखा है. क्या कमी महसूस होती है इस शहर में?
जवाब : वर्ष 2010 और 2012 में जो दंगे हुए वह एक बदनुमा दाग की तरह हैं. यह बेहद कष्टप्रद है. वो दाग अब धुल चुके हैं. बस यही मनाते हैं कि ऐसा दोबारा न हो. बरेली शहर अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता था. यहां लोगों में बहुत प्रेम है. यहां हर धर्म के लोगों के लिए जगह है. बस वही प्रेम और सौहार्द बरकरार रहना चाहिए.
सवाल : बरेली शहर के विकास को आप किस नजरिए से देखते हैं, क्या विकास की रफ्तार सही है?
सवाल : विकास तो बरेली का सही मायनों में उस प्रकार से नहीं हो पाया जिस रफ्तार से होना चाहिए था. रबड़ फैक्ट्री एक पहचान हुआ करती थी बरेली शहर की. हजारों परिवारों का पेट भरता था उस फैक्ट्री से लेकिन अब वह बंद हो चुकी है और लोग बेरोजगार हो चुके हैं. हालांकि, विकास कुछ तो हुआ है, जैसे- पहले शहामतगंज का फ्लाईओवर नहीं था तो हमें रेलवे स्टेशन जाना होता था तो घर से डेढ़ घंटा पहले ही निकलना पड़ता था लेकिन फ्लाईओवर बनने के बाद 20 मिनट का सफर रह गया है. स्मार्ट सिटी में जिस तरह से बरेली आया है तो अब इंडस्ट्रियल एरिया बहुत जरूरी है. फैक्ट्रियां लगनी बहुत जरूरी हैं. पहले किन बेत के फर्नीचर हुआ करते थे पर अब वह सब कहीं नजर ही नहीं आते. जरी जरदोजी बरेली की पहचान हुआ करती थी लेकिन अब वह कारोबार भी खत्म होने की कगार पर है. बरेली का विकास अभी बहुत कुछ चाहता है जिससे लोगों का कारोबार बढ़े, व्यापार बढ़े, रोजगार मिले.
सवाल : जरी जरदोजी के कारोबार किस खत्म होने की वजह आप किसे मानते हैं?
जवाब : जरी जरदोजी बरेली की एक पहचान हुआ करती थी. विदेशों तक सामान जाया करता था. डिमांड इतनी होती थी कि सप्लाई तक पूरी नहीं हो पाती थी लेकिन अब विदेशों में इसकी मांग उतनी नहीं रही. कुछ सरकार की नीतियां भी जिम्मेदार रहीं. जरी जरदोजी ने जिस तरह लोगों को रोजगार दिया था उसका विकल्प सरकारी नीतियां नहीं तलाश पाईं जिससे वे लोग पूरी तरह से बेरोजगार हो गए जो जरी जरदोजी के काम में लगे हुए थे. हालांकि, जरी जरदोजी का काम अभी भी हो रहा है लेकिन उस स्तर पर नहीं हो रहा जिस पर पहले हुआ करता था.
सवाल : बरेली के औद्योगिक विकास को आप किस नजरिए से देखते हैं? उद्योग न लगने का जिम्मेदार आप किसे मानते हैं?
जवाब : बरेली ही नहीं बल्कि हर जिले की यही एक सबसे बड़ी समस्या है. औद्योगिक विकास पूरी तरह से पिछड़ चुका है. आज सभासद से लेकर प्रदेश और केंद्र तक में भाजपा की सरकार है. राष्ट्रपति तक भाजपा से जुड़े हुए हैं और हमारे यहां केंद्रीय मंत्री भी हैं. ऐसे में सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए कि जहां-जहां उद्योग लग सकते हैं वहां इंडस्ट्री लगाई जाए. बरेली में मैन्युफैक्चरिंग नहीं है. जब तक मैन्युफैक्चरिंग नहीं होगी तो लोगों का व्यापार भी नहीं बढ़ेगा और व्यापार नहीं बढ़ेगा तो लोगों को नौकरी भी नहीं मिलेगी. आज बरेली के 80 प्रतिशत कारोबारियों के बच्चे दूसरे शहर में नौकरी करने के लिए जा रहे हैं या फिर विदेश तक भी गए हैं नौकरी करने के लिए. यहां उन्हें उन्नति नहीं दिख रही इसलिए वे लोग बाहर जाने को मजबूर हैं. सरकार की नीतियां आज इतनी बाधक हो गई हैं कि कारोबारी के लिए व्यापार करना मुश्किल हो गया है. हर छोटे से छोटे कागज के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं. यही वजह है कि अगली पीढ़ी नौकरी करना ज्यादा पसंद कर रही है. सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए कि जब तक बड़े उद्योग नहीं आएंगे तब तक व्यापार और रोजगार नहीं बढ़ेगा. सरकार को ऐसी नीति बनानी होगी कि स्थानीय स्तर पर ही कारोबारियों को सस्ती दर पर कच्चा माल उपलब्ध हो सके. 40 साल में बरेली में नया इंडस्ट्रियल एरिया डेवलप नहीं हो पाया है. इस दौरान कई सरकारें आईं और गईं लेकिन किसी ने भी इस दिशा में पहल करने की जरूरत नहीं समझी. इसके लिए हम किसी एक मंत्री या विधायक को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते क्योंकि मंत्री सिर्फ सरकार तक बात पहुंचा सकता है लेकिन अंतिम फैसला तो सरकार को ही लेना है. अतः संतोष गंगवार को इसके लिए जिम्मेदार मानना बिल्कुल ठीक नहीं होगा. यह दुर्दशा सरकारी नीतियों की शत-प्रतिशत कमी की वजह से हुई है. अगर सरकार की नीतियां देश हित में होंगी तो वक्त जरूर लग सकता है लेकिन फायदा जरूर होगा.